यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।
अर्थ जब व्यक्ति इंद्रियों के विषयों में रुचि नहीं लेता है, और कर्मों में नहीं लिप्त होता है, तब वह सभी संकल्पों का त्यागी हो जाता है और योग में स्थित होता है, इसी कारण उसे योगारूढ़ कहा जाता है। व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 4
जिस समय में न तो इन्द्रियों के भोगों में अर्थात इन्द्रियों के भोग हैं जैसे- रूप, रंग, गंध, शब्द, स्पर्श और इन्द्रियां है जैसे- आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा। ना इन्द्रियों के भोग और ना कर्मों में आसक्त होता है। (कर्म के फल में इच्छा करने को कर्मों में आसक्त कहा है) जब भोगों व फल इच्छा का त्याग होता है तब वह सब संकल्पों का त्यागी कहा जाता है। वही सर्व संकल्पों का त्यागी पुरूष योगारूढ कहा जाता है।