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अर्जुन उवाच 
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन। 
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिराम्।।

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्। 
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
अर्थ अर्जुन बोले - हे मधुसूदन ! आपने जो यह समबुद्धि योग कहा , मन के चंचल होने के कारण मैं इस योग की नित्य स्थिर स्थिति नहीं देख पा रहा हु । कारण कि हे कृष्ण ! मन अति चंचल, अशांत, हठी और बलवान है।। उसको रोकना मुझे वायु को वश में करने से भी कठिन प्रतीत होता है । व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 33-34 अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! जो आपने समयोग बताया यह योग करने में कठिन है। क्योंकि मन के जिद्दी होने से इसको वश में कर पाना आसान नहीं। क्योंकि हे कृष्ण! यह मन बड़ा चंचल है। अर्थात मन बंदर की तरह होता है। बन्दर कभी किसी पेड़ पर तो कभी किसी पेड़ पर, ऐसे ही मन है। कभी किसी विषय पर तो कभी किसी विषय पर, मन एक जगह ठहरता ही नहीं। यह बड़ा चंचल है। यह चंचल, दृढ़ और बलवान है, मन को वश में करना यहाँ वायु के रोकने की तरह कठिन है। जैसे आकाश में चलती वायु को कोई मुट्ठी में नहीं पकड़ सकता, ऐसे ही मन को कोई पकड़ नहीं सकता।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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