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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। 
सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।
अर्थ हे अर्जुन ! जो योगी स्वयं की भाती समस्त प्राणियों में सम भाव रखता है और सुख और दुःख में भी सम भाव रखता है वह परमयोगी कहा गया है । व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 32 योगी अपनी आत्मा में सम होकर अपने शरीर को प्रकृति मानकर मन को स्थिर कर लेता है। योगी जब शरीर, मन, बुद्धि को स्थिर कर लेता है तब योगी समता की अनन्त गहराई में अपनी आत्मा का अनुभव करता है। उसी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों (प्राणियों) में सम देखता है। सुख-दुःख मन के भाव है सुख-दुःख आने पर भी स्थिर है वह परम योगी माना गया है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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