युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।
अर्थ इस प्रकार आत्मा को सदा परमात्मा में स्थित करता हुआ सुखपूर्वक ब्रम्हप्राप्ति रूपी स्पर्श से अत्यंत आनंद का अनुभव करता है । सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव देखने वाला योगी अपनी आत्मा में सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा को देखता है और सभी प्राणियों की आत्मा में अपनी आत्मा को देखता है। जो भक्त सभी में मुझे और मुझ में सभी को देखता है उसके लिए में अदृश्य नहीं और मेरे लिए वह अदृश्य नहीं है । जो योगी एकाग्र भाव से सभी प्राणियों में मुझ परमात्मा को भजता है वह सब प्रकार से बर्ताव करता हुआ निरन्तर मुझ में ही स्थित रहता है । व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 28-31
मन शांत है, पापों से रहित है, रजोगुण शांत है, परम प्रभु में एकीभाव है, वह पाप रहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्मा को आत्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परम आत्मा की प्राप्ति रूप, अनन्त आनंद का अनुभव करता है। सत चित आनंद परम प्रभु में जो व्यक्ति निरन्तर एकीभाव रहते हैं वह कभी ना खत्म होने वाले अनन्त आनंद में रहते हैं
सब ओर दिशाओं में अनन्त परम में एकीभाव से युक्त, समता रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी, अपनी आत्मा में सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा को देखता है और सभी प्राणियों (सांस लेने वाले जीव सभी प्राणी है) की आत्मा में अपनी आत्मा को देखता है। अर्थात जैसे सोने से बने हुए आभूषण कड़ा, चैन, बाजूबन्द, अंगूठी आदि आप इनको देखोगे तो अलग-अलग नजर आएंगे। यह अलग-अलग होने से भी है तो सबमें सोना ही, जो जौहरी होता है वह सबमें समान रूपसे सोना (सुवर्ण) ही देखता है। ऐसे ही योगी को आत्म साक्षात्कार होने के बाद सब प्राणियों में एक आत्मा को ही देखता है और सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा में अपनी आत्मा को देखता है। जो सब प्राणियों में मुझे (परमात्मा) को देखता है और मुझमें (परमात्मा में) सबको देखता है अर्थात थियेटर के परदे पर जब मूवी चल रही है उसमें जो लोग है वह अलग-अलग है लेकिन परदा एक ही है आप दस लोगों ने एक गु्रप फोटो खिंचकर उस फोटो को निकलवाया। अब देखें फोटो जिसपे प्रिन्ट हुई है वह पेपर एक है लेकिन उस पेपर पर चित्र अनेक हैं। ऐसे ही परमात्मा एक है वह कण-कण में ऊर्जा के रूप चमक रहा है। आपमें भी वही ईश्वर है जो मुझमें है, भगवान कहते हैं सबमें मुझको देखता है। उनके लिए मैं अदृश्य नहीं हूँ और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं है।
जो पुरूष एकीभाव में स्थिर (आत्मा को परम में स्थित) होकर सम्पूर्ण प्राणियों में आत्म रूप से स्थित मम (मुझ) को भजता (ध्यान) है। वह योगी सब प्रकार से बर्तता भी मुझमें ही बर्तता है। (जिस योगी को हर प्राणी में परम प्रभु ही दिखते है वह मनुष्य किसी का बुरा नहीं करता। उसको ज्ञान है सबमें ईश्वर का ही वास है)
परमात्मा के साथ एकीभाव हुए। योगी संसार के किसी भोग से लिप्त नहीं होते वह भोग कर भी आत्मा में स्थिर रहते हैं। वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ आत्मा में ही रहता है।