सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।
अर्थ संकल्प से जन्म लेने वाली समस्त इच्छाओं का सर्वथा त्याग करके मन से इन्द्रियों के समस्त विषय को पूर्णतय हटाकर । धैर्य को धारण की गयी बुद्धि से (योगी) धीरे-धीरे उपराम हो जाये और स्वयं को परमात्मस्वरूप में स्थित करके अन्य और कुछ भी चिंतन न करे । जहाँ-जहाँ भी यह अस्थिर और चंचल मन भटकता है वहाँ-वहाँ से इसको हटाकर एक परमात्मा में ही स्थित करे । जिसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गए हैं ,जो रजोगुण की प्रकृति से शान्त हो गया है तथा जिसका मन निर्मल हो गया है ऐसे ब्रह्मस्वरूप योगी को निःसंदेह उत्तम सुख की प्राप्ति होती है व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 24-27
मनुष्य के मन में जितनी भी कामना है, वह सम्पूर्ण कामना बार-बार विषय के बारे में चिन्तन करने से, संकल्पों के करने से उत्पन्न होती है। उन सम्पूर्ण कामनाओं का निःशेष (यानि कुछ भी शेष ना बचना निशेष है) रूप से त्याग कर और मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को अर्थात मन में भाव आने से ही इन्द्रियां विषयों का लालच करती हैं अगर मन शांत है तो इन्द्रियां अपने आप शांत है।
इसलिए भगवान कह रहे हैं कि मन से इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भली भांति रोककर धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ (सम साधना ध्यान योग का बार-बार अभ्यास करने से संसार के प्रति वैराग्य होता है, संसार के विषयों का वैराग्य होने से, परमात्मा की तरफ मन लपक जाता है) अभ्यास करता हुआ ऊपराम को प्राप्त हो, धैर्य युक्त बुद्धि (शांत स्थिर बुद्धि) के द्वारा मन को आत्मा में स्थिर करके (बुद्धि से मन को आत्मा में स्थिर) मन बुद्धि से कुछ भी और किसी का थोड़ा भी चिन्तन ना करे। आत्मा में ही स्थिर रहे और जब भी अस्थिर मन जहाँ-जहाँ विचार करता है संसार के विषयों का तब वहाँ वहाँ से अपने मन के विचारों को हटाकर इस मन को एक परमात्मा में ही भली भांति लगाए। क्योंकि जिसका मन शांत व स्थिर है, जो पाप से रहित है अर्थात जो योगी शांत मन करके बुद्धि को सम करके सर्वहित के लिए कर्म करता है वह भगवद स्वरूप मार्ग पर चलने वाला योगी पाप रहित है और जिसका रजोगुण शांत (संसार की इच्छा त्याग ही रजोगुण शांत करना है) हो गया है। ऐसे इस सत चित आनन्द ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है।