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सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। 
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।
 
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। 
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।। 
अर्थ इन्द्रियों से अतीत ,आत्यन्तिकं और केवल सूक्ष्मबुद्धि द्वारा जो अनन्त आनन्द है उस आनन्द को जिस अवस्था में अनुभव करता है उस अवस्था में वह ध्यानस्थ योगी परमतत्व से फिर कभी विमुख नहीं होता । ऐसा लाभ जिसकी प्राप्ति होने पर उसके लिए कोई अन्य लाभ मान्य नहीं होता और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े से बड़े दुःख से भी विचलित नहीं होता । व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 21-22 ध्यान योगी अपने द्वारा अपने आप में जिस सुख का अनुभव करता है। संसार में किसी भी भोग, राज आदि जितने भी सुख हैं, वह सब सुख सब आत्म सुख से बढ़कर नहीं। कारण कि आत्म सुख तीनों गुणों से अतीत है। आत्म सुख सम्पूर्ण सुखों की आखरी हद है इसी आत्म सुख को अक्षय सुख (आनंद) कहा गया है। परम सुख - आत्मा का सुख आत्मा और परमात्मा का एकीभाव हो जाना ही परमात्मा से मिलन है। परमात्मा को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता। ध्यान की उस आत्म अवस्था में स्थित योगी संसार के बड़े भारी दुख से भी विचलित होकर, अपनी ध्यान अवस्था छोड़कर चलायमान नहीं होता।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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