यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।
अर्थ हे पाण्डव ! लोग जिसे सन्यास के नाम से जानते हैं उसको ही तुम योग समझो ,क्योंकि बिना संकल्पों का त्याग किए, कोई भी योगी नहीं बन सकता। व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 2
हे पाण्डव! जिसको सन्यास कहते हैं उसी को तू योग जान/सन्यास ऐसा कहते हैं कि सांख्य योगी की निष्ठा तो ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है। उसी को तू योग जान, क्योंकि संकल्पों का त्याग ना करने वाला कोई भी पुरूष योगी नहीं।
संकल्पों का त्याग करना ही योग है (बार-बार किसी विषय का मन से मनन करना ही संकल्प है।) इनको त्याग न करने वाला कोई भी पुरूष चाहे वह ज्ञानयोगी हो चाहे कर्मयोगी हो दोनों में से, कौन-से भी मार्ग वाला हो चाहे, दोनों में जो मन से किसी विषय को मनन करता है उस इच्छा को विलीन कर देना ही योगी होता है इच्छा का त्याग न करने वाला योगी नहीं।