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यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता। 
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। 
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।
अर्थ जैसे कंपनरहित वायु के स्थान में जलते हुए दीपक की लौं गतिरहित अन्कंप हो जाती है , चित्त को वश में किये हुए ध्यान में लगे हुए योगी के चित्त की दीपक की लौ से वैसी ही तुलना की गयी है। योग का अभ्यास करते हुए जिस अवस्था में निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा स्वयं से स्वयं को देखता हुआ स्वयं में ही संतुष्ट हो जाता है। व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 19-20 जहाँ वायु नहीं है जैसे जमीन में, बहुत गहरे कुएं में वहाँ आप आग जलाओगे तो वहाँ अग्नि प्रकट नहीं होती, होती भी है तो दिये की लो वहाँ जलती नहीं रहती। बिना वायु के दीपक बुझ जाता है या यूं समझे दीपक जल रहा है आप उसपे गिलास या कोई भी बड़ा बर्तन रखते हो दीपक बुझ जाएगा कारण कि बिना वायु के दीपक की लौ नहीं जलती। वैसे ही परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के चित की कही गई है जहाँ जिस व्यक्ति के मन में संसार योग की इच्छा नहीं होती वहाँ परमात्मा तत्व की लौ जल उठती है। जहाँ संसार की इच्छा होती है वहाँ परम के भाव नहीं बनते। योग का अभ्यास करने से जिस अवस्था में, निरूद्ध चित ऊपराम अर्थात ध्यान की गहराई में साधक के मन में कोई विचार नहीं रहता, विचार शून्य होने से मन के विचार निरूद्ध (निरबीज) हो जाते है। चित के सारे विचार खाली होने को ही चित को ऊपराम कहा गया है। ध्यान, समाधि की जिस अवस्था में, बाहर भीतर के सब विचार निरूद्ध होने से, ध्यान की गहराई में अपने आपसे (आत्मा से) अपने आपको परम आत्मा को देखता हुआ अपने आप में (आत्मा में) ही सन्तुष्ट हो जाता है। आत्मा ही परम आत्मा है अपनी आत्मा में ही सर्वत्र आत्मा को देखना बताया गया है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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