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दा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते। 
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।
अर्थ जिस काल (समय) में चित्त को वश में कर लेता है और अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है , स्वयं को समस्त पदार्थों से विरक्त कर लेता है उस काल में वह योगी कहा जाता है व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 18 अपने वश में किया हुआ मन जिस काल (समय) में अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जब यहाँ कुछ भी नहीं था तब भी जो था और सब कुछ नहीं रहेगा तब भी वह रहेगा। उत्पन्न होने से पहले भी था, विनाश होने के बाद भी रहेगा और अभी भी ज्यों का त्यों है। उस अपने आत्म स्वरूप में जो स्थिर हो जाता है। वह स्वरूप में जो रस, आनंद है वह मन को और कहीं नहीं मिला। वह रस, आनंद मन को आत्म स्वरूप में मिलते ही, मन आत्मा में विलीन हो जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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