नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
अर्थ हे अर्जुन ! न ज्यादा खाने वाले का , न कम खाने वाले का ,न ज्यादा सोने वाले का न कम सोने वाले का यह योग को सिद्ध नहीं होता है । यथाउचित आहार-विहार तथा यथायोग्य कर्मो में प्रयत्नशील ,सयंमित सोने और जागने वाले को ही दुःखों का नाश करने वाला यह योग सिद्ध होता है। व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 16-17
अधिक खाने वाले का योग सिद्ध नहीं होता। कारण की भूख के बिना खाने से या भूख से अधिक खाने से प्यास ज्यादा लगती है, पेट भारी हो जाता है, शरीर मेें आलस्य छा जाता है और सुख से बैठा नहीं जाता।
ऐसे ही बिलकुल ना खाने वालों का कभी योग सिद्ध नहीं होता। भोजन ना करने से मन में बार-बार भोजन का चिन्तन होता है। शरीर में शक्ति कम हो जाती है। जीना भारी हो जाता है बैठ करके योग करना भारी हो जाता है।
ज्यादा सोने से भी योग सिद्ध नहीं होता कारण कि ज्यादा सोने से स्वभाव बिगड़ जाता है, बार-बार नींद सताती है। पड़े रहने से सुख व बैठने में परिश्रम लगता है, आलस्य भरा रहता है।
ज्यादा जागने वाले का भी योग सिद्ध नहीं होता। कारण कि आवश्यक नींद ना लेनेे से योग में बैठते ही नींद आयेगी।
भगवान कहते हैं कि दुखों का नाश करने वाला योग तो तब लगता है जब भोजन शरीर के अनुकूल हो, खाना हल्का व खुराक से थोड़ा कम हो वही यथायोग्य आहार होता है। सोना इतनी मात्रा हो जिससे जागने के समय निंद्रा, आलस्य न सताये, शरीर को जितनी नींद या भूख हो उससे थोड़ा कम ही खाना और सोना चाहिए। दोनों ही ज्यादा लेने से आलस्य बढ़ता है। यह दोनों श्लोक 16 व 17 ध्यान वालों के लिए तो उपयोगी है ही अन्य लोगों के लिए भी उपयोगी है।