योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।
अर्थ चित्तवृत्तियों के भोग से विमुख होकर इच्छाओं और आशा का त्याग करके मन व शरीर को वश में करके योगी एकांत में स्थित होकर मन को निरन्तर परमात्मा में एकाग्र करे। स्वच्छ भूमि पर कुश, मृगशाला और वस्त्र बिछे हो व आसान न ज्यादा ऊँचा और न ज्यादा नीचा हो ऐसा स्थापित करे। आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रीयों की क्रियाओं को सयंमित रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए मन को एकाग्र कर ध्यानयोग का प्रयास करे। काया, मस्तक और ग्रीवा को अचल स्थिति में कर तथा किसी अन्य दिशा की और न देखकर केवल अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए स्थिर बैठे। मन को वश में रखने वाला योगी मन को परमात्मा में ही एकाग्र कर निर्वाणरूपी परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 10-15
मन, इन्द्रियां, शरीर को वश में रखने वाला योगी संसार की इच्छाओं को अपने अन्तःकरण से त्याग करके यानि योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर बैठे अर्थात मन इन्द्रियां आशा जब तक स्थिर नहीं होती। तब तक अपने भीतर द्वन्द्व चलता रहता है। जब तक विचारों में हलचल है तब तक कोई व्यक्ति शून्य (सम) नहीं हो सकता। इसलिए संसार की नाशवान चीजों का त्याग करके बिल्कुल शांत व स्थिर होकर एकांत स्थान पर बैठे। एकांत स्थान होने पर विचार शून्य होने लगता है। अगर दो व्यक्ति है तो उस स्थान पर हचलच बनी रहती है। इसलिए भगवान कह रहे हैं कि सब आशा, इच्छा को त्याग कर एकांत में बैठकर आत्मा को निरन्तर परमात्मा में लगाये।
भगवान ध्यान लगाने के विधि बता रहे हैं****-
शुद्ध भूमि में (जहाँ गंद्गी, कचरा, बदबू, ना हो साफ सफाई करके) जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हो (उस समय में लोगों के पास बिछाने के लिए मैट चदर नहीं हुआ करती थी इसलिए मृगछाला आदि बताये गये है। बाकि आप आज के हिसाब से लकड़ी या पत्थर की पीड़ढ़ी पर अच्छा वस्त्र बिछाकर बैठे जो बैठने की पीड़ढ़ी बनाई है वह ना ज्यादा ऊंची होनी चाहिए। कारण कि अगर ज्यादा ऊंची हो और ध्यान में नींद आ जाये तो गिरने का खतरा रहता है। इसलिए बैठने का स्थान ना ज्यादा ऊंचा हो और ना ज्यादा नीचा हो। अगर ज्यादा नीचा हो तो जमीन पर चलने वाले जीव जन्तु आपका ध्यान भंग करेंगे।
इसलिए ना ऊंचा हो और ना ज्यादा नीचा हो। ऐसे मध्यम सा स्थान बनाकर उस पर बैठें। उस आसन पर बैठकर चित व इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को सम (एकाग्र) करके अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करें।
अभ्यास करना है (किस का) योग का (किस लिए करना है) अंतःकरण की शुद्धि के लिए (कैसे होगा) मन को एकाग्र करके (मन सम कैसे होगा) इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में करने से (इन्द्रियों को वश में कैसे करें) उस आसन पर बैठकर शांत व स्थिर होकर बाहर की आशा व इच्छा को त्यागने से भगवान बोले उस आसन पर बैठकर, काया, सिर और गले को समान अचल (स्थिर) धारण करके।
आधी मुन्दी आंखों से अपनी नाक के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर और कहीं दूसरी तरफ ना देखता हुआ। जिसका मन शांत है जो पाप रहित है ब्रह्मचारी के व्रत में स्थिर अर्थात सम्पूर्ण आसक्तियों का त्याग ही ब्रह्मचारी का व्रत कहा गया है। भय रहित, शांत मन वाला, सावधान योगी, सम साधना में स्थिर होकर एक परमात्मा के परायण होकर ध्यान लगाएं। इस प्रकार आत्मा को निरन्तर परमात्मा में लगाता हुआ, श्री कृष्ण कहते हैं कि मुझमें रहने वाली परम आनंद की शांति को प्राप्त होता है।