श्री भगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।
अर्थ श्री भगवान ने कहा:
जो व्यक्ति कर्म करता है और फल का आश्रय नहीं लेता , वह संन्यासी और योगी है, और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं होता। व्याख्यागीता अध्याय 6 का श्लोक 1
श्री भगवान बोले: जो पुरूष करने योग्य कर्म करता है वह सन्यासी तथा योगी है। करने योग्य कर्म का अर्थ है जैसे हर महीने एक पेड़ लगा देना। उनको समय पर पानी देना कहीं से जा रहे हो और कहीं से पानी बह रहा है तो उसको ठीक करवाना। किसी जगह गंदगी ज्यादा फैली हो तो वह सफाई करवा देना। अपनी कमाई से दस प्रतिशत अपने पास रख कर अपने जीवन यापन के लिए, बाकी नब्बे प्रतिशत कमाई को अच्छे कार्य में लगाएं जैसे अपने शहर गांव में पीने के पानी के लिए वाटर कूलर लगवाना। गरीबों को खाना खिलाना, पशुओं के लिए डॉक्टर, एम्बूलेस (गाड़ी) की व्यवस्था करना। यानि सर्वहित के लिए जो भी करने योग्य कर्म है वह करने चाहिए।
जितने भी कर्म आप करें वह ईश्वर का कार्य समझ कर करें ऐसा ना हो कि यह कर्म करने से मुझको पुण्य मिलेगा, सुख मिलेगा, स्वर्ग या मोक्ष मिलेगा। अगर आप यह सारे कर्म करके इसके बदले में यह फल मिलेगा ऐसा मन में विचार लाते हो तो यह कर्म फल को चाहने वाला है। फल को चाहना ही अगला जन्म तैयार करना है यह बंधन है कोई भी काम करें उसके बदले में नाम, बडाई, मान सम्मान मिलेगा यह इच्छा ही खत्म करें। जिसको ज्ञान है उसको पता है यहाँ कितनी भी इच्छा कर लो अगर इच्छा पूरी भी हो गई तो भी नाशवान है।
कारण कि सब खाली हाथ आते हैं सब कुछ हासिल करने के बाद भी भोगने की इच्छा लेकर खाली हाथ वापिस जाना है। योगी को ज्ञान होता है इसलिए योगी कर्म फल का आश्रय त्याग कर कर्म करते हैं आपको भी अपने जीवन को भगवत मार्ग पर कर्म फल का आश्रय छोड़कर करने योग्य कर्म करने चाहिए। फल की इच्छा को छोड़ने वाला पुरूष ही सन्यासी तथा योगी है। केवल अपनी इच्छा को त्याग करने वाला सन्यासी नहीं यानि करने योग्य कर्म तो सन्यासी को भी करने चाहिए। लोगों को अच्छे ज्ञान की शिक्षा देना आदि बहुत से कर्म सन्यासी के आगे आते हैं उनको करना चाहिए वही सन्यासी है। कर्मों का त्याग करने वाला भी योगी नहीं और जो पुरूष फल की इच्छा छोड़कर करने योग्य कर्म करता है परमात्मा के कर्म समझ कर कर्म करने वाला व्यक्ति सन्यासी भी है और कर्मयोगी भी है ऐसे कर्म करने से दोनों मार्ग प्राप्त होते हैं।