Logo
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।
अर्थ एक सच्चा तत्वज्ञानी योगी देखते हुए , सुनते हुए , छूते हुए , सूंघते हुए ,खाते हुए ,सोते हुए , चलते हुए , ग्रहण करते हुए हुए , त्यागते हुए , सोते हुए , श्वास लेते हुए और ऑंखें खोलते व् बंद करते हुए यही विचार करता हैं की इन सबमे करता मैं नहीं हु अपितु इन्द्रियां ही अपने विषयों में क्रियाशील हैं व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 8-9 सांख्ययोगी तत्व को जानने वाला होता है। सन्यासी को सम्पूर्ण ब्रह्म में प्रभु की लीला नजर आती है। सन्यासी प्रभु को कण-कण में देखता है। हर पदार्थ को तत्व से जानता है। सन्यासी साक्षी बनकर अपने शरीर को भी आत्मा से अलग देखता है। सन्यासी को पता है शरीर प्रकृति है और मैं आत्मा हूँ। सन्यासी जब खुद का स्वध्ययन (अपने शरीर की भी हलचल को दृष्टा बनकर देखना अध्ययन करना स्वाध्याय है) करता है तो अपने को शरीर से अलग देखता है। जैसे- देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, भोजन करता हुआ, सूंघता हुआ यह सब ज्ञान इन्द्रियां है और आगे सब कर्म इन्द्रियां है। चलता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, मल मूत्र का त्याग करता हुआ, श्वास लेता हुआ, आँखों को खोलता व मूंदता है। सोचने में आपको कर्म इन्द्रियां व ज्ञान इन्द्रियों का पता नहीं चलता यूं समझे, आँख ज्ञान इन्द्री भी है और कर्म इन्द्री भी है। जैसे यहाँ बता रखा है देखता हुआ अब यह देखता जो है देखने से अपने को समझ आता है तो आंखें अपनी ज्ञान इन्द्री हुई और इसी इन्द्री का कर्म है। आंखों को खोलता व मूंदता तब यह कर्म इन्द्री भी है। जैसे नाक से सूंघना ज्ञान इन्द्री हुई और नाक से श्वास लेना छोड़ना कर्म इन्द्री मानी जाएगी। ऐसा माने सम्पूर्ण इन्द्रियां, इन्द्रियों के लालच में बरत रही है मैं स्वयं अर्थात आत्मा कुछ भी नहीं करता हूँ। ऐसा माने की सन्यासी हर तत्व का ज्ञानी होता है। हर तत्व को जानने वाला सांख्य योगी होता है। अपने शरीर को ‘‘मैं’’ मान लेना क्योंकि फिर हर बात पर मैं देख रहा हूँ मैं सुन रहा हूँ... मैंने बोला इस तरह शरीर को ‘‘मैं’’ मान लेने से मैं के (कर्त्तापन) अहंकार व अज्ञान से बन्ध जाता है मनुष्य। क्रिया तो होती है शरीर में उनको ‘‘मैं’’ मानना बंधन है। सांख्य योग में सन्यासी तत्व को जानने वाला होता है। इसलिए शरीर के द्वारा क्रिया होने पर भी अपने स्वरूप आत्मा पर दृष्टि रखता है तो मैं आत्मा कुछ भी नहीं करता हूँ।
logo

अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

Follow us on

अधिक जानकारी या निस्वार्थ योगदान के लिए आज ही संपर्क करे।

[email protected] [email protected]