सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकंसांख्यंचयोगंचयःपश्यतसपश्यति।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकंसांख्यंचयोगंचयःपश्यतसपश्यति।।
अर्थ अज्ञानी लोग सांख्ययोग (सन्यास योग )और कर्मयोग को अलग-अलग फलवाले कहते हैं ,ज्ञानी जनों के अनुसार दोनों में से किसी एक मार्ग का अनुसरण करने से दोनों का फल परमात्मा प्राप्ति हि होत है । सांख्ययोग के द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है। कर्मयोग के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोग को फलरूप में एक समान देखता है। वही सही है। व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 4-5
अज्ञानी लोग ऊपर कहे हुए सांख्य योग (सन्यास योग) और कर्मयोग को अलग अलग फल वाले कहते हैं न कि पंडित जन (यहां भाव यह है कि जो तत्वज्ञानी है वह भी कहने में पंडित ही आते हैं, इसलिए जो अलग-अलग फल देने वाले जो लोग कहते हैं, वह मूर्ख लोग कहते हैं न कि पंडित) कर्मयोग या सन्यास योग दोनों में से एक में भी अगर योगी सम (स्थिर) होकर अपना जीवन जीता है, तो फलस्वरूप दोनों का एक ही मिलता है।
सन्यासी को जो परम धाम प्राप्त होता है वही परम धाम कर्मयोगी को प्राप्त होता है इसलिए जो पुरूष दोनों में फलस्वरूप (मुक्ति) एक ही देखता है वही यथार्थ (सत्य) देखता है।