स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।
अर्थ वह योगी जो बाहरी विषयों के संपर्क को छोड़कर, अपनी दृष्टि को भ्रूभंग(भृकुटि ) के बीच में स्थापित करके, नासिका के माध्यम से विचरण करने वाली प्राण और अपान वायु को सम कर लेता है , जिनकी इंद्रियां, मन, और बुद्धि उनके नियंत्रण में हैं, जो केवल मोक्ष को ही अपना लक्ष्य मानता है, और जो इच्छा, भय, और क्रोध से पूर्णतः रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है। व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 27-28
प्रकृति के विषय भोगों को बाहर ही छोड़कर (प्रकृति के विषय है। रस, रूप, गंध, शब्द, स्पर्श इन भोगों का भोग जीव पांचों इन्द्रियों से करता है) भगवान ध्यान योग के द्वारा प्रकृति पदार्थों से सम्बन्ध विच्छेद की बात कर रहे हैं। ध्यान योग में एकमात्र परमात्मा का ही चिन्तन होने से प्रकृति पदार्थों से विमुखता हो जाती है। नेत्रों की दृष्टि को दोनों भौहों के बीच में जहां तिलक लगाते है वहाँ। स्थित करके, नासिक से बाहर निकलने वाली वायु को ‘प्राण’ और नासिक के भीतर जाने वाली वायु को ‘अपान’ कहते है। प्राण व अपान वायु को शांत व सम करें।
साधक के मन पर इन्द्रियों और बुद्धि दोनों के ज्ञान का प्रभाव रहता है उनके मन में इन्द्रियों और बुद्धि के ज्ञान का द्वन्द्व चलता रहता है दोनों का द्वन्द्व चलने से कोई फैसला नहीं ले पाते यह द्वन्द्व ही ध्यान में बंधन है। यहाँ मन, बुद्धि, इन्द्रियों को वश में करने का तात्पर्य है कि मन पर केवल बुद्धि के ज्ञान का प्रभाव रह जाये। इन्द्रियों के ज्ञान का प्रभाव मिट जाये। वह जीते हुए मन वाला कहा जाता है।
यदि वस्तु मिलने वाली है तो बिना इच्छा करे भी मिलेगी और वस्तु नहीं मिलने वाली है तो इच्छा करने पर भी नहीं मिलेगी। वस्तु का मिलना या न मिलना इच्छा के अधीन नहीं। विधाता के अधीन है जो इच्छा के अधीन नहीं उसकी इच्छा को छोड़ने में क्या कठिनाई है। यदि वस्तु की इच्छा पूरी होती तो उसे पुरा करने का प्रयत्न करते अगर जीने की इच्छा पूरी होती तो मृत्यु से बचने का प्रयत्न करते ना इच्छा से वस्तु मिलती ना मृत्यु से बचाव होता। यदि वस्तओं की इच्छा ना रहे तो जीवन आनन्दमय बन जाता है और जीने की इच्छा ना रहे तो मृत्यु भी आनन्दमय हो जाती है। जीवन तभी तक कष्टमय होता है जब तक विषयों की इच्छा करते हैं। मृत्यु भी जब तक कष्टमयी होती है जब तक जीने की इच्छा करते हैं। इसलिए जिसने वस्तुओं की और जीने की इच्छा का त्याग कर दिया है वह जीते जी मुक्त हो जाता है। अमर हो जाता है। शांति को प्राप्त हो जाता है।