लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।
अर्थ जो मुनिजन पाप से रहित होते हैं और अंधकार से मुक्त होते हैं, जिनका शरीर, मन, बुद्धि व इन्द्रियों सहित वश में है।वे ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। वे आत्मा को पहचानते हैं, ये सम्पूर्ण प्राणियों के हित में लगे रहते हैं व्याख्याशरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि को अपने और अपने लिए मानते रहने से यह अपने वश में नहीं होते और इनमें राग-द्वेष, काम, क्रोध आदि दोष बने रहते हैं। यह दोष जब तक विद्यमान रहते हैं तब तक मनुष्य स्वयं इनके वश में रहता है इसलिए साधक को चाहिये कि वह शरीर आदि को अपना ना माने। अपने को आत्मरूप ही माने ऐसा मानने से सब दोष नष्ट हो जाते हैं। परम युक्त होने पर साधक को अपनी साधना पर कोई संशय नहीं रहता।
जिनके सब दोष नष्ट हो गये
जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये
जो सर्वहित के मार्ग पर चल रहा है।
जिसने अपने मन को वश में कर लिया है वह विवेकी योगी जैसे लहरें सागर में लीन हो जाती हैं। ऐसे ही सांख्य योगी और कर्मयोगी निवार्ण ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।