ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।
अर्थ ये इन्द्रियों के संपर्क से उत्पन्न होने वाले भोग दुःख को जन्म देने वाले ही होते हैं, क्योंकि उनका आदि और अंत है। हे कौन्तेय, बुद्धिमान व्यक्ति उनमें सुख नहीं ढूँढता।जो इस जन्म में शरीर छूटने से पहले काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले संयोग को सहन कर सकता है, वही पुरुष योगी है और सुखी है व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 22-2
आंख, नाक, कान, जीभ, त्वचा ये सब इन्द्रियां है और प्रकृति विषयों से जैसे रंग, रूप, गंध, शब्द, स्पर्श के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब इन्द्रियों के भोग हैं। यह भोग, इच्छा रखने वाले व्यक्ति को सुख रूप लगते हैं। लेकिन मनुष्य के मन, इन्द्रियों व विषयों के भोग के कारण इस माया में जन्मते मरते रहते हैं। यह सुख इतना दुखदाई है कि इनकी इच्छा में पड़ने के बाद यह कभी ना खत्म होने वाला खेल जन्ममरण चलता रहता है। यह सुख आदि अन्तवाले अर्थात अनित्य है। विवेकी मनुष्य ऐसा जानते हुए उस सुख (इन्द्रियां व विषयों के संयोग) में रमण नहीं करता।
अक्षय सुख (नित्य आनंद) प्रकृति के तीनों गुणों (सत्व, राजस, तमस) से परे हैं।
जो साधक शरीर का नाश होने से पहले पहले अपने अंतःकरण में काम क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सम करने में समर्थ हो जाता है। वही पुरूष योगी है वही सुखी है। शरीर का नाश होने से पहले-पहले, सब मनुष्य माया में पड़े भोग की इच्छा पूर्ति के लिए भाग रहे हैं। इनको कहो आओ तुम्हें प्रभु का ज्ञान बताएं तो यह कहते हैं, अब उमर ही क्या है, मैं कहता हूँ पिछली बार बुढापे में लिया होता ज्ञान तो इस बार असत्य सुख के पीछे भागना नहीं पड़ता। उम्र का कोई निश्चित पैमाना नहीं है कि इस उम्र से पहले तो मरना ही नहीं जन्म की पहली सांस से ही मृत्यु कभी आ सकती है। यहाँ अस्सी वर्ष की उम्र हो जरूरी नहीं इसलिए यहाँ कहा गया है शरीर का नाश होने से पहले पहले सम साधक अपने काम क्रोध को विलीन करके परम सुख में युक्त हो जाता है।