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न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।
अर्थ ऐसे ज्ञानी परम प्रभुको जानकर ब्रह्म में स्थिर होकर न तो प्रियतम प्राप्ति पर अनंत हर्षित होते हैं न ही अप्रिय प्राप्ति पर उद्विग्न होते हैं | ब्रह्मस्पर्श की असीम आन्दित अनुभूति को प्राप्त करने के पश्चात् बहिर इन्द्रिय सुखों से आसक्तिरहित हो परम सुख का अनुभव करते हैं व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 20-21 प्रिय और अप्रिय को प्राप्त होने पर भी जिसके अंतःकरण में हर्ष और शोक नहीं होता वह साधक स्थिर बुद्धि वाला ज्ञानी ब्रह्म में स्थित है। प्रिय और अप्रिय में समभाव का मतलब है जिसने अपने शरीर सभी इन्द्रियां, मन, बुद्धि पर भी विजय प्राप्त कर ली है। ऐसा करने पर कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता। इसमें विशेष बात यह है कि प्रिय और अप्रिय कि प्राप्ति में इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि पर जोर लगाना नहीं पड़ता, ये सब स्वयं ही स्थिर रहते है। जिस साधक का मन इतना आसक्ति रहित हो चुका है। कि वह ब्रह्मस्पर्श (प्रकृति की चीजें) से प्रभावित नहीं होता। वह आत्म सुख को प्राप्त होता है। ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित साधक अक्षय सुख का अनुभव करता है। आनंद का अनुभव देह, इन्द्रियां, मन या बुद्धि नहीं, अक्षय सुख (आनंद) तो वही अनुभव कर सकता है जिसने इन सबको जीत लिया है। आनंद का अनुभव करने के लिए सुख की आसक्ति का भी त्याग करना पड़ता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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