श्री भगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।
ज्ञेयःसनित्यसंन्यासीयोन द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।
ज्ञेयःसनित्यसंन्यासीयोन द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।
अर्थ श्री भगवान बोले- सन्यास योग तथा कर्मयोग दोनो हि कल्याणकारी है लेकिन इन दोनो मे से कर्मयोग श्रेष्ठ है ऐसा मनुष्य जो न तो किसी से घृणा कर्ता है ओर् न हि किसी प्रकार कि कामना कर्ता है ऐसा कर्मयोगी सदा सन्यासी हो जाता है ओर् हे महाबाहो अर्जुन समस्त द्वन्द्वों से रहित मनुष्य सर्ल्तपुर्वक संसारिक बन्धनो से मुक्ति पा लेता है व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 2-3
कर्मसन्यास और कर्मयोग ये दोनों ही परम कल्याण करने वाले हैं।
कर्म सन्यास में योगी कर्मों से सन्यास लेकर अर्थात संसार के सभी भोगों का त्याग करके सिर्फ एक प्रभु में ही एकीभाव स्थित रहता है। जब सन्यासी का देह त्याग होता है तो उसके मन में संसार की किसी प्रकार की इच्छा नहीं रहती इसलिए उसका जन्म नहीं होता। क्योंकि इच्छाओं का जन्म होता है, जब आसक्तियां ही नहीं तो शरीर खत्म होने के बाद, मन जीते जी शून्य हो जाता है। शरीर व इच्छा खत्म होने के बाद आत्मा बचती है आत्मा परम में विलीन हो जाती है। इसी को तत्वज्ञानियों ने कल्याण (मुक्ति) कहा है।
कर्मयोग में भी योगी-फल की इच्छा त्याग कर कर्म करते है। योगी के भी सन्यासी की तरह मन में इच्छा नहीं रहती। कर्मयोगी कोई भी कार्य करे उसमें कर्त्ता भाव नहीं रहता। कारण कि योगी अपने जीवन को प्रभु को अर्पित कर देता है। बिना फल की इच्छा के कर्म करने वाला योगी बंधन में नहीं बंधता अर्थात जन्म मरण में नहीं बंधता। कर्मयोगी भी जब देह त्याग करता है तब मन की सभी आसक्तियां जीते जी त्याग चुका होता है। शरीर छुटने के बाद इच्छाएं है नहीं तो मन भी शून्य है (विलीन है) जब शरीर व मन दोनों नहीं रहे तो बाकी बचा आत्मा,यह आत्मा अपना खुद का स्वरूप है। फिर जैसे सन्यासी की आत्मा परम में विलीन होती है वैसे ही कर्मयोगी भी परम को प्राप्त होता है।
जैसे दिल्ली से मुंबई जाना है, मुंबई आपका गंतव्य स्थान है। अब आप मुंबई ट्रेन से जाओगे तो भी पहुंचोगे और बस से जाओगे तो भी पहुंचोगे। मंजिल एक है मार्ग दो है। ऐसे ही भगवान कह रहे हैं कर्मसन्यास और कर्मयोग दोनों मार्ग परम कल्याण देने वाले हैं। परन्तु उन दोनों में कर्म सन्यास से कर्म योग साधन में सुगम (आसान) होने से श्रेष्ठ है। इस बात को भी उसी मुंबई जाने वाली बात से समझें जैसे बस में व्यक्ति परेशान हो जाता है, हिल डुल नहीं सकता ट्रेन में रिजर्वेशन कराके आसानी से सोते हुए सफर कर सकता है। घूमने फिरने की भी जगह होती है। अगर आपको कोई पूछे मुंबई जाना है दिल्ली से, बस में जाऊं या ट्रेन में, आपको पता है यह दोनों ही मार्ग से मुंबई पहुंच जायेगा पर आप उसको राय ट्रेन की ही दोगे क्योंकि आपको पता है कि बस से ट्रेन का सफर साधन में सुगम (आसान) है।
कर्म सन्यास में कर्मों से सन्यास यानि त्याग करना होता है। कर्म योग में कर्मों से योग करना होता है। कर्म सन्यास में विचारों को शून्य करके अपने आप को पहाड़ों की बर्फ में भक्ति करते हुए शरीर को गला देना होता है यानि शरीर की भी आसक्ति ना रहे। सिर्फ परम में एकीभाव से स्थिर होकर मोक्ष को प्राप्त करना कठिन है क्योंकि कर्मों से सन्यास ले लिया है योगी ने।
दूसरा है कर्मों से योग, कर्मयोग में जो मनुष्य न द्वेष करता है और ना आकांक्षा करता है, वह कर्म योगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है। क्योंकि सन्यासी भी तो द्वेष आकांक्षा नहीं करता और जो कर्मयोगी है वह भी समत्व रूप योग में स्थिर होकर सब कर्मों के फल की इच्छा त्याग कर अपने जीवन को भगवत स्वरूप मार्ग पर लगाकर सर्वहित के कर्म करता हुआ अपना जीवन जीता है। वह कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है अर्थात सन्यासी ने भी संसार की आसक्तियों का त्याग कर रखा है तो कर्मयोगी ने भी आसक्तियों का त्याग कर रखा है इसलिए कर्म योगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है।
क्योंकि राग (मन का संसार के रंगों में रंग जाना राग है) द्वेष (किसी से ईर्ष्या, या जलन करना द्वेष है) आदि द्वंद्वों (भोग भोगूं या साधना करूं विचलित रहना मन के भावों में बहना स्थिर न हो पाना द्वन्द्व है) भगवान कहते है राग, द्वेश, द्वन्द्वों से रहित पुरूष सुख पूर्वक बन्धन से मुक्त हो जाता है।