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तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।।

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।
अर्थ जिनका मन और बुद्धि अटल स्थिरता को प्राप्त कर लेते हैं ऐसे साधक परमतत्व में स्थिर हो जाते हैं ऐसे साधक शीघ्र ही पुनरावृति रहित परमधाम को प्राप्त होते हैं और ज्ञान के प्रकाश से इनके समस्त पापों का नाश हो जाता है | ऐसे महापुरूष विद्या युक्त ब्राह्मण और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं | व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 17-18 साधक पहले बुद्धि से निश्चय करे कि सर्वत्र एक परम आत्मा ही परिपूर्ण है। संसार के उत्पन्न होने से पहले भी परम आत्मा थे। संसार का विनाश होने पर भी परम आत्मा रहेंगे। बीच में भी जो प्रवाह चल रहा है उसमें भी परम वैसे के वैसे हैं। इस प्रकार परमात्मा की सत्ता में अटल निश्चय होना ही तद्रूप बुद्धि है। जब मन, बुद्धि में एक परमात्मा तत्व का निश्चय हो जाता है तब मन से स्वाभाविक परमात्मा का ही चिन्तन होता है। सब क्रिया करते समय यही चिन्तन अखण्ड रहता है कि सत्तारूप से सब जगह एक परमात्मा तत्व ही परिपूर्ण है। चिन्तन में संसार की सत्ता नहीं आती परमात्मा से अलग अपनी सत्ता ना रहना ही परमात्मा के परायण होना है। परमात्मा में अपनी स्थिति का अनुभव करने से अपनी सत्ता परमात्मा की सत्ता में विलीन हो जाती है। स्वयं परमात्मा स्वरूप हो जाता है। जिनकी स्थिति परमात्मा तत्व में है ऐसे परमात्मा परायण योगी ज्ञान के द्वारा पाप रहित होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। जो योगी परम युक्त हो गया है वह विद्यायुक्त ब्राह्मण में और चंडाल में, गाय, हाथी, कुत्ता जितने भी इस लोक में जीव हैं। सबमें स्वरूप परमात्मा को ही देखता है। जिससे आपको कुछ लेना देना नहीं। जिससे आपको कोई स्वार्थ नहीं। ऐसे व्यक्ति के साथ भी आप प्रेम पूर्वक अच्छे से अच्छा व्यवहार करें। सबके हित की जिसके मन में प्रीति हो गई उसको परमात्मा प्राप्त हो जाते हैं। पशु, पक्षी, जीव, जन्तु, पेड़, पौधे, यह सभी बदल रहे हैं पर इनमें रहने वाला जो परम तत्व हैं। वह कभी नहीं बदलता है ज्ञानी लोग सबमें उस तत्व को ही देखते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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