सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्तेसुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देहीनैव कुर्वन्न कारयन्।।
नवद्वारे पुरे देहीनैव कुर्वन्न कारयन्।।
अर्थ सम्पूर्ण कर्मों को मन से त्यागकर ( परमात्मा को समर्पित कर )जो व्यक्ति आत्मा में स्थित है, और मन व् इन्द्रियां नियंत्रित रखते हुए वह इस नवद्वारों वाले देहरूपी निवास में भी सुखी है। ऐसा विवेकपूर्ण कर्मयोगी समस्त कर्मों का मन से त्याग करके न तो खुद को करता मानता है और न ही करवाने वाला मानते हुए स्वरूप में सुखी रहता है व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 13
मन के पार्ट जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और इन्द्रियां इन सबको मिलाकर जो तरंगों की गुच्छी बनती है वह अंतःकरण होता है। भगवान कहते हैं अंतःकरण जिसके वश में है ऐसा सांख्य योगी (सन्यासी) का आचरण करने वाला पुरूष, न करता हुआ न करवाता हुआ, नवद्वारों वाले शरीर (शरीर के नौ द्वार है) रूप घर में, सब कर्मों को मन से त्याग कर, आनन्द पूर्वक सत चित आनंद परम आत्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।