ब्रह्मण्याधाय कर्माणिसङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।
अर्थ इस प्रकार जो कर्मयोगी अपने सम्पूर्ण कर्म परब्रह्म को अर्पण कर और आसक्ति रहित होकर कर्म करता है वह पापों से उसी प्रकार दूर रहता है जिस प्रकार जल में रहते हुए कमल पानी से श्पर्श रहित रहता है व्याख्यागीता अध्याय 5 का श्लोक 10
परमात्मा को समर्पित तो हम भी करते हैं, लेकिन सब नहीं चुन-चुनकर समर्पित करते हैं जैसे असफलताएं समर्पित कर देते हैं, सफलता में ‘मैं’ खड़ी कर लेते हैं, केवल पराज्य को समर्पित करते हैं जीत को नहीं, कोई हार जाता है तो कहता है भाग्य और जीत जाता हैं तो कहता है मैं, दुःख आता है तो ऊपर हाथ करके कहता है क्यों देता है दुःख, सुख आते ही अकड़कर निकल जाते हैं।
कृष्ण कहते हैं सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण कर, ध्यान रहे समर्पण से बड़ी सामर्थ्य नहीं समर्पण करना कमजोरों की बात नहीं, समर्पण करना इस जगत की सबसे बड़ी शक्ति की घटना है, जो कह देता है सब तेरा, तेरी मर्जी मेरी कोई मर्जी नहीं, उसी क्षण वह सब झंझट से बाहर हो जाता है
वह जल से कमल के पत्ते की तरह जैसे कमल का पत्ता या कोई भी पत्ता जल में डूब कर वापिस पानी को छोड़कर सूख जाता है अगर वह पानी की जगह किचड़ में डूबता तो किचड़ पत्ते पर चिपक जाता है (लिप्त हो जाता है) लेकिन पानी लिप्त नहीं होता, पत्ता जैसे पानी से लिप्त नहीं होता ऐसे ही कर्मयोगी पाप से लिप्त नहीं होता।