योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।
अर्थ हे धनंजय! वो ज्ञानी लोग कर्मबन्धन से मुक्त हो जाते हैं जिन्होंने योग समता से भौतिक कर्मो से सम्बन्ध विच्छेद हो गया है और ज्ञान के प्रकाश से सभी संशयों का नाश हो गया है ऐसे आत्मज्ञानी को कर्म नहीं बांधते इसलिए हे भरतवंशी हृदय में अज्ञानतावश उत्पान संशय ज्ञान रुपी तलवार से काट कर सम हो जा और युद्ध के लिए उठ जा व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 41-42
कर्मयोग की विद्धि से परम आत्मा में सारे कर्मों का फल अर्पण कर दिया है। (कर्मयोग की विद्धि-सम होकर कर्म करना किसी भी कर्म को करने पर फल की इच्छा ना करना सब कुछ परम प्रभु ही कर रहे हैं मेरा इसमें कुछ नहीं इस भाव से सर्वहित के मार्ग पर चलते जाना ही कर्मयोग की विद्धि है।) और जिसने अपने विवेक बुद्धि द्वारा सारे संशयों का नाश कर दिया है ऐसे अपने मन को वश में किये हुए पुरूष को कर्म नहीं बांधते (जन्म मरण नहीं होता, आत्मा परम में विलीन हो जाती है।) हे अर्जुन हृदय में स्थित संशय को ज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके, समयोग रूप कर्म योग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा।
‘‘संशय अज्ञान से उत्पन्न होता है।’’
‘‘संशय ज्ञान से नष्ट होता है।’’
‘‘ जय श्री कृष्णा ’’