अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।
अर्थ जो व्यक्ति अज्ञानी, अश्रद्धालु, और संदेही है, वह नष्ट हो जाता है। संशयात्मा व्यक्ति के लिए न तो इस लोक में जगह है, न ही अन्य कोई लोक है, न सुख है व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 40
कर्म योग में विवेक बुद्धि की मुख्यता होती है और सन्यास योग में श्रद्धा की मुख्यता होती है।
पशुबुद्धि व्यक्ति को विवेकहीन कहते हैं और जिसके भीतर प्रभु प्रेम नहीं होता उस व्यक्ति को श्रद्धा रहित कहते हैं। जिसमें विवेक बुद्धि नहीं और श्रद्धा भाव नहीं ऐसे व्यक्ति संशय युक्त होते हैं, उनका पतन हो जाता है।
संशय अर्थात संदेह, डाऊट, शक, शंका करना विश्वास न करना, विवेकहीन (अज्ञानी) बिना श्रद्धा भाव के मनुष्य संशय में रहते हैं। ऐसे मानव को ना पृथ्वी पर ना परलोक में सुख मिलता है। ज्ञान हो तो संशय मिट जाता है। श्रद्धा हो तो भी संशय मिट जाता है परन्तु ज्ञान व श्रद्धा दोनों ही ना हो तो संशय नहीं मिट सकता। इसलिए जिस संशयात्मा मनुष्य में न ज्ञान हो न श्रद्धा हो अर्थात जो ना खुद जानता है और न दूसरों की बात मानता है, उसका पतन हो जाता है।