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तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। 
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
अर्थ तत्वज्ञानी महापुरुषों के पास जाकर उनको साष्टांग दंडवत् प्रणाम करने, सेवा करने, और सरलता से प्रश्न पूछने से वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश देंगे व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 34 गुरू तत्वदर्शी हो पर ज्ञानी ना हो। तो वह शिष्य की शंकाओं का समाधान नहीं कर सकता। अगर गुरू शास्त्रों का ज्ञाता हो पर तत्वदर्शी ना हो तो उसके ज्ञान की बातों में वजन नहीं होगा। जिससे शिष्य को ज्ञान हो जाये। वह बातें सुना सकता है। पुस्तकें पढ़ा सकता है पर शिष्यों को आत्म बोध नहीं करवा सकता। इसलिए गुरू को तत्वदर्शी और ज्ञानी दोनों होना बहुत जरूरी है। तत्वदर्शी ज्ञानी महापुरूषों के पास जाकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करें। गुरू के सामने छोटा बनकर रहे जिससे अपने शरीर से गुरू का निरादर न हो जाये। नम्रता, सरलता और जिज्ञासु भाव से उनकी सेवा करे। गुरू के मन के संकेत से आज्ञा के अनुकूल काम करे। गुरू की सबसे बड़ी सेवा है उनके सिद्धान्तों के अनुसार अपना जीवन बनाना। कारण कि उन्हें सिद्धान्त जितने प्रिय होते हैं उतना अपना शरीर भी प्रिय नहीं होता। सिद्धान्त की रक्षा के लिए वे अपने शरीर को त्याग देते हैं। इसलिए सच्चा सेवक उनके सिद्धान्तों का स्थिरता से पालन करता है। यही वास्तविक सेवा है। केवल परम तत्व को जानने के लिए जिज्ञासा भाव से सरलता और विनम्रता पूर्वक गुरू से प्रश्न करें। अपने को ज्ञानी दिखाने के लिए या गुरू की परीक्षा करने के लिए प्रश्न ना करें। सरलता पूर्वक प्रश्न करें। मैं कौन हूँ, संसार क्या है, बंधन क्या है, मोक्ष क्या है, परम तत्व का अनुभव कैसे हो सकता है। मेरे को ज्ञान समझने में क्या-क्या बाधा है। मुझको तत्व समझ क्यों नहीं आ रहा। ऐसे जो भी ज्ञान लेना हो वह श्रद्धा भाव से पूछे केवल अपने आत्म बोध के लिए। जैसे-जैसे जिज्ञासा हो वैसे पूछे। तत्वज्ञानी अर्थात कि उस महापुरूष को परमात्मा तत्व का बोध हो गया हो, उन्हें शास्त्रों का अच्छी तरह ज्ञान हो, ऐसे तत्वदर्शी व महापुरूषों के पास जाकर तत्व ज्ञान का उपदेश लेना चाहिए।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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