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यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। 
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतो़ऽन्यः कुरुसत्तम।।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे। 
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।
अर्थ हे कुरूवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! सनातन परब्रह्म परमात्मा को यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले ही प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले मनुष्य के लिए यह मनुष्य लोक भी सुख दायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा? वेद में और भी बहुत तरह के यज्ञों का विस्तार से वर्णन किया गया है। उन सभी यज्ञों को तू कर्मजन्य जान, और इस प्रकार जानकर तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जाएगा व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 31-32 यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले अर्थात कोई भी कार्य के पूर्ण होने के बाद उससे जो भी बचता है वह बचा हुआ (अमृत) है। उसमें (बचे हुए में) जीवन यापन करने वाला मुनष्य सनातन (जो हमेशा से था हमेशा रहने वाला है वह सनातन होता है) परमात्मा को प्राप्त होता है। किसी भी प्रकार का यज्ञ न करने वाले मनुष्यों के लिए यह मनुष्य लोक भी सुख दायक नहीं है अर्थात यज्ञ ना करने वाला व्यक्ति लालची होता है वह भोग की कामना पूर्ति के लिए धन इक्ट्ठा करता है। फिर वह उसको लेकर चिन्ता में रहता है कि धन खत्म ना हो जाए और धन कैसे कमाया जाये। पदार्थों का भोग करने वाला कभी शांत व सुखी नहीं रह सकता जिसको पृथ्वी पर भी सुख नहीं तो मरने के बाद उसको कहाँ सुख मिलेगा। इस प्रकार के और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में कहे गये हैं। उन सब यज्ञों को तू कर्म जन्य जान अर्थात शरीर से जो क्रिया होती हैं। वाणी से जो कथन होता है मन से मनन करना संकल्प कहलाता है। वे सभी कर्म कहलाते हैं। इस प्रकार जानकर यज्ञ करने से तू मुक्त हो जायेगा। यज्ञों का वर्णन सुनकर ऐसी जिज्ञासा होती है, इन सब यज्ञों में कौन-सा यज्ञ श्रेष्ठ है भगवान आगे के श्लोक में इसका ज्ञान बताते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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