ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।
अर्थ ऐसे मनुष्य जो प्रभु चेतना में लीन रहते है उनके यज्ञ और उसके अर्पण के सभी पात्र ब्रह्म में समाहित हैं, उनके द्वारा डाले जाने वाली आहुति (गेहूँ ,घी आदि )भी ब्रह्म है, उनके द्वारा की गई क्रिया भी ब्रह्म ही है। उनके द्वारा प्राप्त किये जाने वाले फल भी ब्रह्म में ही हैं। कुछ योगी दैव यज्ञ का ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगी लोग ब्रह्मरूप अग्नि में विचार रूप यज्ञ के द्वारा ही जीवात्मा रूप यज्ञ का हवन करते हैं व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 24-25
अर्पण अर्थात जिसमें अर्पण किया जाये और जिससे अर्पण किया जाए हवन कुण्ड व पात्र भी ब्रह्म (प्रकृति) है। हवन पदार्थ अर्थात तिल, जौ, घी आदि भी ब्रह्म है (प्रकृति ही है) कर्त्ता अर्थात करने वाला शरीर भी प्रकृति के तत्वों से बना हुआ है यह भी ब्रह्म है। अग्नि में आहुति देने रूप क्रिया भी ब्रह्म है। (अग्नि, आहुति, क्रिया सब प्रकृति है) इस ब्रह्म कर्म में स्थिर रहने वाले, मनुष्यों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म (प्रकृति) ही है। यह योगीजन देवताओं को पूजने के लिए पूजन रूप यज्ञ का ही भली भांति अनुष्ठान किया करते हैं।
अन्य योगीजन अर्थात दूसरे कर्मयोगी
परमात्मा में ज्ञान द्वारा योग में एकीभाव से स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में विचार रूप यज्ञ करना है। आत्मा में मन की इच्छा को विलीन कर देना ही यज्ञ है। आगे के श्लोक 26 में दोनों को अलग-अलग बताया है।