गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।
अर्थ वो मनुष्य जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गई है, जो मुक्त हो गया है, उसका चित् स्वरूप के ज्ञान में स्थित है, ऐसे केवल यज्ञ के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 23
प्रभु कहते हैं कि जिसकी सभी आसक्तियां नष्ट (विलीन) हो गई, वही मुक्त है। जिस व्यक्ति के मन में इच्छाएं, काम क्रोध लोभ मोह अहंकार होते हैं, वह मुक्त नहीं होता। जो मुक्त है वही इच्छा रहित है। जिस व्यक्ति को आसक्ति है, वह मुक्त (आजाद) नहीं वह तो इच्छाओं का गुलाम है। भगवान कहते हैं कि इच्छाओं से आजाद होकर जिसका मन निरन्तर स्वरूप के ज्ञान में स्थिर रहता है अर्थात मनुष्य का शरीर नाशवान है, शरीर को ‘‘मैं’’ समझना अज्ञान है। शरीर प्रकृति के तत्वों का बना हुआ है खत्म होने के बाद प्रकृति में वापिस विलीन हो जाता है।
यह शरीर हरपल बदल रहा है, यह स्थाई एक क्षण भी नहीं है ना आपका जन्म आपकी मर्जी से हुआ है और ना मृत्यु आपकी मर्जी से होगी, ना जन्म से पहले यह शरीर था व ना मरने के बाद यह शरीर रहेगा और अब भी यह स्थाई नहीं है। अब भी अदृश्य रूप में क्षण-क्षण बदल रहा है। इस हिसाब से मनुष्य का शरीर अपना स्वरूप नहीं है। दूसरा है-मन (शरीर अपना स्वरूप नहीं तो अब आप देखें) क्या आपका मन आप हो। मन बंदर की तरह छलांग लगाता रहता है। एक पल भी मन ठहरता नहीं, शरीर नींद आने के बाद एक जगह ठहर तो जाता है लेकिन मन तो नींद में भी स्वप्न के रूप में भटकता है। जब आप शांत व स्थिर होकर अपने मन से आ रहे विचारों को साक्षी बनकर देखते हो तो आप यकीन नहीं करोगे कि जो आपके भीतर विचारों ने हलचल मचा रखी थी, वह दृष्टा बनकर देखने मात्र से ही विलीन हो गई यानि स्थिर होते ही मन विलीन हो जाता है। अब आप विचार करो शरीर आप नहीं हो। मन आप नहीं हो, तो आप कौन है आपमें तीन भाग होते हैं। शरीर, मन, आत्मा आपने चिन्तन किया कि मैं शरीर व मन नहीं तो बाकी बचा आत्मा। आत्मा ब्रह्म के कण-कण में है, सब जगह सर्वत्र व्याप्त है आत्मा ही परम प्रभु है आत्मा ही अपना स्वरूप है इस ज्ञान में स्थिर रहना ही अपने स्वरूप में निरन्तर सम रहना है।
ऐसा व्यक्ति जो हर कर्म ऐसे करता है जैसे यज्ञ कर रहा हो, उसके सारे कर्म विलीन हो जाते हैं। एक क्रिया होती है, एक कर्म होता है, मनुष्य जवान से बूढ़ा हो जाता है। यह क्रिया है, क्रिया से ना पाप होता है, ना पुण्य, न बन्धन होता है, न मुक्ति अर्थात नदियों का बहना क्रिया है। अगर नदी में डूब कर चाहे कोई व्यक्ति मर जाये चाहे उस नदी के पानी को व्यक्ति, पशु, पक्षी, फसलें पीये, दोनों अवस्था में नदी को पाप पुण्य नहीं लगता क्योंकि नदी का बहना एक क्रिया है। जब व्यक्ति क्रिया से सम्बन्ध जोड़कर कर्त्ता बन जाता है, तब अपने लिए क्रिया करता है तब वह क्रिया फल की इच्छा से कर्म बन जाता है कर्म से बन्धन होता है। कर्म बन्धन से छूटने के लिए जब मनुष्य अपने लिए कुछ नहीं करता निस्वार्थ भाव से केवल दूसरों के लिए कर्म करता है, तब वह कर्मयोगी बन जाता है। कर्मयोग से बन्धन छूटता है बन्धन मिटने से योग हो जाता है। अर्थात प्रभु के साथ विलीन हो जाता है। आत्मा को परम में विलीन कर देना ही खुद के स्वरूप में स्थित रहना होता है, ऐसा योगी कर्म ऐसे करता है जैसे यज्ञ कर रहा है। यज्ञ अर्थात अपने से किसी दूसरे को कोई वस्तु देना यज्ञ है जैसे अग्नि यज्ञ में व्यक्ति एक-एक करके सारी आहुति अग्नि के माध्यम से प्रभु को समर्पिण कर देता है। ऐसे ही योगी अपने जीवन की सारी खुशियां सर्वहित के लिए आहुति समझकर अपने से त्याग कर देता है दूसरे को देना यज्ञ है और उस योगी के सारे कर्म यज्ञ में आहुति (त्याग) देने से विलीन हो जाते हैं।
‘‘यज्ञ का अभिप्राय है कि हर कर्म और उसके फल को परम प्रभु को समर्पित करते जाना।’’