Logo
यदृच्छाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। 
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।
अर्थ जो कर्मयोगी फल की इच्छा के बिना अपने-आप जो कुछ मिल जाए, उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईष्र्या से रहित, द्वन्द्वों से रहित तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बंधता। व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 22 मन में आशा या इच्छा रहने के कारण ही शरीर, इन्द्रियां, वश में नहीं होते। कर्मयोगी को बिना इच्छा किए कुछ मिल जाता है तो, योगी उस पदार्थ में भी मोह नहीं करता, योगी को पता होता है कि संसार के सारे सुख व भोग असत्य है, केवल प्रभु ही सत्य है। इसलिए योगी को परम प्रभु की तरफ से जो भी मिलता है, उसको प्रभु का प्रसाद समझकर हमेशा सन्तुष्ट रहता है। जितना है उससे ही जीवन यापन करता है। भगवान कह रहे हैं कि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है। द्वंद्व अर्थात कर्म योगी लाभ - हानि, मान अपमान, स्तुति-निन्दा, अनुकूलता प्रतिकूलता, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से अलग (दूर) होता है। इसलिए योगी के अन्तःकरण (मन) में उन द्वंद्वों से होने वाले राग द्वेष, हर्ष शोक आदि विकार (कमियां) नहीं होते। सिद्धि और असिद्धि अर्थात सुख-दुःख में समान रहने वाला कर्मयोगी (जो सुख-दुःख में स्थिर है वही योगी है) कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बंधता।
logo

अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

Follow us on

अधिक जानकारी या निस्वार्थ योगदान के लिए आज ही संपर्क करे।

[email protected] [email protected]