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निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। 
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।
अर्थ जिस व्यक्ति ने अपने शरीर और अंतःकरण को अच्छी तरह से वश में कर लिया है, और सभी प्रकार के संग्रह का त्याग कर दिया है, वह इच्छा रहित कर्मयोगी होता है, वह शरीर सम्बंधी कर्म करते हुए भी पाप को प्राप्त नहीं होता व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 21 अंतःकरण अर्थात मन-मन के करण है काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार। इन्द्रियों के सहित शरीर अर्थात पाँच इन्द्रियां ही शरीर हैं जैसे आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा इनकी पूर्ति के लिए मानव की देह हाथ पैर स्थूल देह का पिंड सारे जीवन दौड़ता है। भगवान कह रहे हैं कि अर्जुन को जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों के साथ शरीर जीता हुआ है और संसार के सारे भोगों का त्याग कर दिया है। भोग, (खाना, पीना, राग, काम, ऐश्वर्य, धन, सुख, घर, गाड़ी, मान सम्मान, वाहवाही भोग है) और इन सब की इच्छा को ज्ञान के द्वारा मन से विलीन कर देना त्याग कहलाता है। आशा और इच्छा। किसी भी चीज की आस करना ही इच्छा है (इच्छा ही संकल्प है) आशा ही नहीं होगी तो इच्छा भी नहीं होगी। आशा करो चाहे इच्छा दोनों एक ही धागे के दो सिरे हैं। जो आशा इच्छा को छोड़कर योग में युक्त हो जाता है, वह पुरूष अपने जीवन जीने के लिए (खाना, पीना, कपड़े, घर व परिवार के कर्त्तव्य) शरीर सम्बन्धी कर्म करता हुआ किसी भी पाप को प्राप्त नहीं होता, कारण कि योगी को संसार की इच्छा ही नहीं, जब इच्छा नहीं तो जन्म-मरण, पाप-पुण्य, सब आत्मा में विलीन हो जाते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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