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एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।
अर्थ हे परन्तप ! राजर्षियों ने इस प्रकार परम्परा के माध्यम से इस योग को जाना, लेकिन बहुत समय के बाद यह योग मानव समाज में लुप्तप्राय हो गया व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 2 हे परंतप ! इस प्रकार से यह योग जो परमात्मा से उत्पन्न हुआ वह फिर सूर्य को मिला फिर मनु ने इस ज्ञान को अपने बेटे को दिया, फिर उनके बाद यह ज्ञान राजर्षियों ने जाना। इसको राजर्षियों ने जाना अर्थात ना वह राजाओं ने जाना ना ऋषियों ने जाना। किन्तु ऐसे राजाओं ने जाना जिनका जीवन ऋषियों जैसा था। जैसे राम, जनक आदि उसके बाद लाखों वर्षों तक कोई इस ज्ञान का प्रचार या यूं कहें उसके बाद लम्बे समय तक यानि राम व कृष्ण के बीच का समय लाखों वर्ष बीतने पर भी इस योग को समझने वाला सन्त नहीं हुआ जो इस योग का प्रचार करें। बहुत लम्बा समय बीतने की वजह से यह योग पृथ्वी पर लुप्तप्राय सा हो गया। अब इस बात को अच्छे से समझें यह योग खत्म नहीं होता चाहे विनाश हो चाहे बहुत काल बीत जाये यह योग अविनाशी है। आप आज से ही इस योग की शुरूआत करें। इस योग का सारा ज्ञान आपके विचारों में अपने आप आ जाएगा। यह समय बीतने से लुप्त हो जाता है। लेकिन यह ज्ञान परम का है इसका कभी विनाश नहीं होता यह योग अविनाशी है। इस योग को (स्थिरता को) आप चाहे कर्म में लगाए चाहे सन्यास में यही वह योग है जो आपको संसार की इच्छाओं से दूर शून्य की तरफ लेकर जाता है। इस योग को करते हुए प्राणी जीते जी कल्याण को प्राप्त हो जाते हैं। आप चाहे सन्यास से परमात्मा प्राप्ति करें चाहे कर्म से परमात्मा प्राप्ति करें आपको परम प्राप्ति करने के लिए इस योग को दोनों ही मार्गों पर अपने जीवन में धारण करना पड़ेगा।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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