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यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः। 
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। 
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।
अर्थ जिसके सभी कर्म संकल्प और कामना से रहित हैं, और जिनके सभी कर्मफल ज्ञान रूपी अग्नि से जल गए हैं, उन्हें आत्मज्ञानी भी पण्डित कहते हैं। वे कर्म व फल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय रहित और सदा तृप्त होते हैं। वे सभी कर्म करते हुए भी किसी कर्म से नहीं बंधते व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 19-20 स्थिर रहने वाले योगी के सम्पूर्ण कर्म बिना कामना और बिना संकल्प के होते हैं, जिसके सारे कर्म ज्ञान रूपी अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं। कामना व संकल्प ये दोनों कर्म के बीज हैं। संकल्प व कामना ना रहने पर कर्म अकर्म हो जाते हैं। कर्म बांधने वाले नहीं होते, उनमें रहने वाली इच्छा व संकल्प बांधने वाले होते हैं। कर्ममय संसार में रहकर भी कर्मों के फल से लिप्त ना होना कोई साधारण बात नहीं, भगवान ने ऐसे कर्मयोगी को मनुष्य में बुद्धिमान कहा, उस महापुरूष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं अर्थात ऐसा कर्मयोगी, पंडितों का भी पंडित व ज्ञानियों का भी ज्ञानी है। आगे श्री भगवान कहते हैं कि सारे कर्मों व उनके फल में आसक्ति का सारा त्याग करके जो परम आत्मा में हर पल स्थिर व तृप्त है वह कर्मों में भांति-भांति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता। आश्रय से रहित का अर्थ है कि भविष्य के बारे में चिन्ता ना करना। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति का चिह्नमात्र भी आश्रय ना लेना, (निर, आश्रय) आश्रय मिले या ना मिले उसकी चिह्नमात्र भी परवाह ना करना ही आश्रय रहित होता है। भांति-भांति बर्तता हुआ का अर्थ है कर्मयोगी चाहे कुछ भी कर्म करे जैसे नौकरी, व्यापार, राजनीति, खेती या सन्यास वह संसार में कुछ भी करे। योगी में कामना व संकल्प ना होने की वजह से वह प्रकृति गुण से बंधता नहीं। इसलिए वह भांति-भांति (अलग-अलग) बर्तता हुआ भी कुछ नहीं करता।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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