किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।
अर्थ कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस विषय में विवेकी भी मोहित हो जाते हैं इसलिए अब में जो कर्म का रहस्य तुझे बताने जा रहा हूँ वह तुम्हारी इस अशुभ संसार बंधन से मुक्ति में तत्त्व भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्मों की गति गहन है और उसे समझना कठिन है। व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 16-17
यदि मनुष्य में मोह, आसक्ति, फल इच्छा है तो कर्म ना करते हुए भी कर्म ही हो रहा है परन्तु यदि मोह, आसक्ति आदि नहीं तो कर्म करते हुए भी अकर्म है। तात्पर्य यह है कि कर्म को करने वाला (कर्त्ता) निर्लिप्त है तो कर्म करना व न करना दोनों ही अकर्म है। भगवान ने कर्म के दो भेद बताये हैं (कर्म और अकर्म) कर्म से जीव बंधता है और अकर्म से मुक्त होता है। साधारण मनुष्यों में इतनी बुद्धि नहीं होती कि वह कर्म अकर्म का निर्णय कर सके। बड़े-बड़े विद्वान भी इस विषय में भूल कर जाते हैं। कर्म अकर्म के तत्व को जानने में उनकी बुद्धि चकरा जाती है। आगे भगवान प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं वह कर्म तत्व तुझको भली भांति कहूंगा। तात्पर्य यह है कि कर्म करने की वह विद्या बताऊंगा जिससे तू कर्म करते हुए भी जन्म-मरण बंधन से मुक्त हो जाएगा। भगवान आगे के श्लोक में कहते हैं कि कर्म, अकर्म तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए -
कर्म। संसार की इच्छाओं की पूर्ति के लिए और भोग पूर्ति के लिए किया जाता है।
अकर्म का स्वरूप है कि कर्म करते हुए भी अकर्ता रहना यानि जो भी कर्म हो रहे हैं वह सब मैं नहीं भगवान ही कर रहे हैं। यानि कर्म इच्छा रहित होकर सर्वहित के लिए करना चाहिए। योग में स्थिर होकर कर्म करना अकर्म है।
विकर्म उसको कहते है जिनको करने से पाप को प्राप्त होता है जैसे चोरी, धोखा, हत्या जितने भी गलत काम होते हैं, वह विकर्म है। अपने को सुख देना कर्म है। दूसरों की सेवा करके सुख देना और स्थिर (सम) रहना अकर्म है। अपने व दूसरों को बिना बात दुखी करना विकर्म है। कर्मों का क्या फल मिलेगा यह समझना बहुत कठिन है। किसी भी कर्म को करने में मनुष्य अपना फायदा देखता है पर हो नुकसान जाता है। वह सुख के लिए करता है पर मिलता दुख है। मनुष्य कर्मों की गति नहीं समझ सकता क्योंकि कर्म की गति गहन अथवा समझने में बड़ी कठिन है।
जिस कामना से कर्म होते हैं, उसी कामना के बढ़ने पर विकर्म होता है। परन्तु कामना नष्ट होने पर सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। इस प्रकार सत्य ज्ञान अकर्म को जानना होता है और अकर्म होता है, कामना शून्य होने पर। कामना का नाश होने पर, विकर्म होता ही नहीं।