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चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। 
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। 
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।
अर्थ मैंने गुणों और कर्मों के आधार पर चारों वर्णों की रचना की है। हालांकि, मैं अविनाशी परमेश्वर सृष्टि रचना करने वाला हूँ,लेकिन तू मुझे अकर्ता ही जान क्योंकि मेरी स्पृहा कर्मों के फल में नहीं होती। इसलिए, मुझे कर्मों से बंधन नहीं होता। जो व्यक्ति मुझे तत्त्व से जानता है, वह कर्मों से नहीं बंधता व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 13-14 भगवान कहते है कि प्रकृति के तीनों गुण (सत्व, रज, तम) और इन गुणों के चार प्रकार के वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) को मैंने रचा है। इस सृष्टि रचना का कर्म परम प्रभु ने किया इसका कर्त्ता होने पर भी भगवान कहते हैं, मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्त्ता ही जान। विश्व रचना आदि समस्त कर्म करते हुए भी परम प्रभु का उन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं। उनकी कर्म फल में चिह्न मात्र भी आसक्ति, मोह, कामना नहीं है। इसलिए वह कर्म परम को लिप्त नहीं करते। परम कहते हैं जैसे मेरी कर्म फल में स्पृहा (इच्छा) नहीं ऐसे ही तुम्हारी भी कर्मों के फल में स्पृहा नहीं होनी चाहिए। कर्म फल में इच्छा न रहने से सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी तुम कर्मों से बंधोगे नहीं। इस प्रकार जो मनुष्य इन विचारों के विज्ञान को तत्व से जान लेता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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