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वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः। 
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।
अर्थ ज्ञान रूपी तप से शुद्ध हुए ,आसक्ति ,भय और क्रोधरहित मुझमे लीन और मुझपे ही पूर्ण आश्रित मेरे भगत आदिकाल से मेरे सवरूप को प्राप्त हो चुके हैं व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 10 जीव के एक तरफ यानि बाहर संसार माया है और दूसरी तरफ यानि भीतर ईश्वर का वास है। जब जीव भगवान का आश्रय छोड़कर संसार का आश्रय लेते हैं, तो मनुष्य में राग, भय, क्रोध, लोभ, मोह, कामना आदि सभी दोष जीव को जन्म मरण में बांध लेते हैं और जब मनुष्य शांत व स्थिर होकर इस संसार का चिन्तन करता है कि मैं कौन हूँ यह ब्रह्माण्ड कैसे बना, शरीर छोड़ने के बाद जीव कहां जाता है। इस पूरी सृष्टि को किसने बनाया। धीरे-धीरे जब मनुष्य को असत्य संसार का ज्ञान होता है तो संसार से वैराग्य हो जाता है। जैसे ही संसार का आश्रय छोड़ता है तो भगवान का आश्रय लेता है। अब से पहले बहुत से भक्त जिनके राग, भय, क्रोध नष्ट हो गए थे वो अनन्य प्रेम पूर्वक (जो और किसी वस्तु, व्यक्ति या देवता का चिन्तन ना करता हो, यानि अन्य किसी भी चीज को चिन्तन ना करना आत्मा में ही एकीभाव स्थिर रहना अनन्य प्रेम, अनन्य भक्ति होता है) भक्त ऊपर कहे ज्ञानरूप तप (योग में स्थिर रहना ही तप है) से पवित्र होकर मेरे स्वरूप  को प्राप्त हो चुके हैं अर्थात यानि बहुत से भक्त निर्गुण निराकार को प्राप्त हो चुके है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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