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श्री भगवानुवाच 
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। 
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।
अर्थ श्री भगवान बोले - मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, फिर सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा, और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा व्याख्यागीता अध्याय 4 का श्लोक 1 जिसका कभी नाश नहीं होता वह अविनाशी होता है और जिसका नाश होता है वह विनाशी होता है। यह योग जो आपको अध्याय दो और तीन में बताया गया, बिना आसक्तियों के सिर्फ सर्वहित के लिए किये जाने वाला कर्म जो सब अपने कर्त्तापन के विचारों को सम (स्थिर) करके, सिर्फ भगवत स्वरूप मार्ग पर चलने को योग कहते हैं। यानि सब इच्छाओं का त्याग करके अपने कर्मों को सर्वहित में लगा देना ही कर्म योग है। भगवान कह रहे हैं इस योग को सबसे पहले मैंने सूर्य से कहा, अर्थात परम ने जब यह ब्रह्म रचा तब सबसे पहले यह योग सूर्य से कहा निष्काम भाव से कर्म करना ही योग है। तब यह ज्ञान सूर्य ने लिया तब से सूर्य बिना किसी इच्छा के सभी जीवों के लिए प्रकाश देते हैं निष्काम भाव से। फिर इसी योग को सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा, यानि पृथ्वी पर शुरूआत में तत्व से हर ज्ञान को मनु ने जाना था। मनु पृथ्वी पर पहले मनुष्य थे जिन्होंने ध्यान व समाधि की गहराई में डूबकर ज्ञान का प्रकाश अपने विवेक में जलाया।  मनु समृति ग्रंथ में मनु ने सभी प्राणियों के लिए कानून बनाये थे। आज भी उसी अनुशासन के बनाए हुए ज्ञान पर सौ से ज्यादा देशों के कानून बने हुए हैं) सूर्य ने मनु से इस योग को कहा अर्थात जब कोई ज्ञान देने वाला नहीं था मनु ने इस ज्ञान को जाना कैसे, जब आप परम में एकीभाव हो जाते हो, विचार शून्य हो जाते हो तब ज्ञान का जो प्रकाश होता है वह सूर्य है वही परम प्रकाश पूरे ब्रह्म में है। सूर्य (प्रकाश) ने मनु के विचारों में यह ज्ञान उत्पन्न कर दिया। फिर मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा (इक्ष्वाकु मनु के पुत्र थे)। मनु से पहले इस पृथ्वी पर कोई मानव नहीं था। इसलिए यह ज्ञान मनु ने ध्यान की गहराई में उतरकर प्रकाश से ग्रहण किया था। जैसे इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है। ऐसे ही ब्रह्म का एक दिन भी खत्म होता है, तब रात्रि शुरू होती है। रात्रि में सारे ब्रह्माण्ड का विनाश यानि अग्नि ही अग्नि हो जाती है सब तरफ। फिर दोबारा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है तब कुछ नहीं रहता इस लोक में सिर्फ जंगल ही जंगल, पहाड़ ही पहाड़ फिर धीरे धीरे वक्त के साथ मानव दोबारा उत्पन्न होता है। शुरूआत में मनुष्य की उत्पत्ति के बाद कोई ज्ञानी, गुरू या ग्रंथ नहीं होता। उस वक्त योगी (सम साधक) अपनी साधना करता है तब यह ज्ञान यहीं होता है। आकाश प्रकाश में योग का विनाश नहीं होता (ज्ञान यहीं रहता है आकाश में) प्रकृति की उत्पत्ति विनाश होता रहता है। जैसे ही उत्पत्ति होती है फिर कोई साधक प्रभु की खोज करते हैं उनकी बुद्धि में यह ज्ञान यहीं होता है जो खोज करने पर विचार बनकर भावों में आ जाता है। यह ज्ञान आता कहाँ से है, यहीं इसी प्रकाश से इसलिए भगवान कहते हैं, यह ज्ञान का प्रकाश मैंने सूर्य से कहा फिर सूर्य ने इस योग को धारण किया। (यानि निस्वार्थ जलता रहता है) निष्काम भाव से योग में स्थिर है फिर उसी ज्ञान के प्रकाश को मनु ने जाना फिर मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से यही योग कहा
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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