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यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।
अर्थ कर्तव्य पालन के लिए जो नित्य कर्म हैं उनको उसी भावना से कर जैसे ईश्वर के लिए यज्ञ करते हैं अन्यथा अपने लिए किये गए कर्म तुम्हे सांसारिक बंधनों में जकड़ लेंगे | इसलिए हे कुन्तीपुत्र तू आसक्तिरहित होकर नितय कर्म कर व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 9 यहाँ भगवान कहते हैं यज्ञ के लिए किए जाने वाला कर्म से इस बात को आप अच्छे से समझें यानि अपने लिए नहीं सर्वहित के लिए किए जाने वाला कर्म यज्ञ होता है,कर्मयोगी वही है जो लोगों के भले का काम करे क्योंकि योगी तो अपना सारा जीवन भगवत स्वरूप मार्ग पर लगा देता है। ऐसे योगी तो सम्पूर्ण जीवन का यज्ञ कर देते हैं यानि लोगों की सेवा में कर्म करना ही यज्ञ करना है। (अन्य कर्मों में लगा हुआ मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता है) यानि जो कर्मयोगी नहीं है जो अपनी इच्छा की तृप्ति करने के लिए संसार में कर्म करते हैं वह कर्म मनुष्य को जन्म मरण में बांध लेता है। संसार की किसी भी वस्तु व्यक्ति से आसक्तियां ही जीव को आगे से आगे अलग-अलग योनियों में जन्म दिलाती है। इसलिए हे कुन्ती नन्दन आसक्ति रहित होकर तुम कर्म करो।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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