यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।
अर्थ हे अर्जुन, जो व्यक्ति मन से अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करता है और निष्काम भाव से कर्म को करता है, वही श्रेष्ठ है। तू शास्त्रों के अनुसार कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना ही श्रेष्ठ है। और तेरे शरीर की यात्रा भी इसी तरह सिद्ध होगी व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 7-8
इन्द्रियों को हठपूर्वक रोकने से मन नहीं रूकता मन को विचार शून्य करना होता है। जब आपको परमात्मा का सच्चा ज्ञान हो जाता है तब सारा संसार असत्य हो जाता है। यानि संसार से वैराग्य हो जाता है। जब मन में प्रभु के सिवा किसी वस्तु की इच्छा ही नहीं, जब इच्छा ही नहीं तो इन्द्रियां अपने आप नियंत्रित हो जाती हैं। तब वह मनुष्य सारी आसक्तियों से अलग होकर, निष्कामभाव से (यानि सब कुछ सर्वहित के लिए करना खुद के लिए पाने की इच्छा शून्य सिर्फ ईश्वर का कार्य समझकर
अपने को कर्त्तापन से अलग करके अर्थात सब कुछ प्रभु ही कर रहे हैं मैं कुछ नहीं कर रहा। और ना ही कोई कामना आपके भीतर हो फिर प्रभु मार्ग समझकर जो कर्म किये जाते हैं वह कर्म निष्कामभाव के होते है) कर्म इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है यानि अपने शरीर की इन्द्रियों को कर्मयोग में लगाता है अर्थात योग का मतलब समसाधना (स्थिरता) में लगाता है वही श्रेष्ठ है। इसलिए भगवान कहते हैं अर्जुन को, कि तू नियत कर्म कर (शास्त्रों के अनुसार) कर्म ना करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। क्योंकि कर्म ना करने से शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी। अर्थात शरीर की यात्रा जीवन होता है। अगर कर्म नहीं करेगा तो जीवन यात्रा में सिद्ध यानि सुख नहीं होगा।
- ‘‘अब भगवान आगे कर्मयोग में लगा हुआ साधक (योगी) कैसे कर्म करता है यह बताते हैं’’