न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।
अर्थ कोई भी प्राणी बिना कर्म किये एक क्षण भी नहीं रह सकता क्योंकि ये प्राकृतिक है सभी प्राणी प्रकृति के त्रिगुणानुसार (तीनो गुणों सत्व ,रज व तम के अनुसार)कर्म करने के लिए बाध्य हैं व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 5
बहुत से मनुष्य केवल शरीर से कर्म करने को ही कर्म मानते हैं। पर गीता ने शारीरिक, वाचिक (बोलना) और मानसिक रूप से की गई क्रियाओं को कर्म माना है। मनुष्य की सोच बनी हुई है। जिसके अनुसार व्यापार, नौकरी, खेती, पढ़ाई आदि को ही कर्म मानते हैं। और इनके अतिरिक्त खाना, पीना, सोना, उठना, बैठना, चलना, चिन्तन करना आदि को कर्म नहीं मानते। इसी कारण कई मनुष्य नौकरी आदि को छोड़कर ऐसा मान लेते हैं कि मैं कर्म नहीं कर रहा। स्थूल शरीर की क्रियाएं जैसे नींद, चिन्तन, यह सब क्रियाएं प्रकृति गुण के हिसाब से प्रकृति अपने आप करवा लेती है। जैसे व्यक्ति सो जाता है तब नींद आने के बाद उसको यह पता भी नहीं रहता मैं कौन हूँ मेल हूँ या फिमेल कौन-सी जगह सो रहा हूँ। तब भी मनुष्य का शरीर क्रिया करता रहता है। जैसे धड़कन धड़कना, ब्लड चलना नसों में, सांसे चलना और अपना मन भी नींद में कहाँ-कहाँ के स्वप्न दिखाता है। जागृत अवस्था में जैसे पानी पीना, फ्रैश होना, खाना खाना और खाने की भूख लगने पर खाने की व्यवस्था करना कोई भी मानव, किसी भी अवस्था में (नींद में जागृत में कोई भी स्थान पर सुख-दुःख में कही भी) क्षण मात्र भी कर्म किये बगैर नहीं रह सकता। क्योंकि प्रकृति के गुण सब प्राणियों से कर्म करवा लेती है। कर्म करने में तो आप परतंत्र है। पर इनमें आसक्तियों को रखने व ना रखने में आप स्वतंत्र है। मन से मनन करते रहते हैं और इन्द्रियों से (शरीर से) रोक देते हैं भोग को,तो वह व्यक्ति कैसे होते हैं आइए जानते हैं आगे के श्लोक में।