न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।
अर्थ अर्थात्, "व्यक्ति कर्मों के त्याग करने से निष्काम कर्मफल को प्राप्त नहीं करता। और न केवल संन्यास के द्वारा ही सिद्धि को प्राप्त कर सकता है व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 4
अब कोई व्यक्ति कह दे कि मुझको प्रभु का ज्ञान हो गया। यह संसार असत्य है इसलिए कर्म करने की क्या जरूरत है कि मुझको तो मोक्ष लेना है इसलिए कर्मों का त्याग कर दिया है। कर्म योग में कर्म करना आवश्यक है क्योंकि निष्काम भाव से कर्म करने पर ही कर्मयोग की सिद्धि होती है। इस बात को अच्छे से समझें, जो योग (समसाधना) पर आरूढ होना चाहता है अपने में समता लाना चाहता है उसके लिए निष्काम भाव से कर्म करना आवश्यक है। अगर वह कर्म करेगा ही नहीं तो उसको यह कैसे पता लगेगा कि मैं सुख-दुःख में सम रहा या विचलित हो गया। इसलिए जब तक अपने लिए कर्म करेंगे तब तक कामना का त्याग नहीं होगा और जबतक कामना का त्याग नहीं होगा तब तक निष्कर्मता की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए मनुष्य को कर्म करना चाहिए। अगर हम कर्म ही नहीं करेंगे तो हमको क्या पता चलेगा कि फल ना मिलने से या मिलने से मुझको सुख-दुःख हुआ है कि नहीं। जब आप कर्म करोगे तो ही निष्कर्मता का अनुभव कर पाओगे अपने भीतर। इसलिए कर्म को छोड़ने से, त्याग से अपने भीतर की हलचल का पता नहीं चलता। जब कर्म करते हैं तब सुख आये या दुख उस वक्त सम रहना ही योग है। बाकी कोई व्यक्ति कहता है मैं कर्म नहीं करूंगा तो श्री कृष्ण कहते हैं हे अर्जुन!