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आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।
अर्थ हे कुन्ती नन्दन ! मनुष्य का विवेक इस प्रकार अतृप्त रहने वाले कामना रूपी कट्टर शत्रु ढाका हुआ है और अग्नि की तरह चलायमान रहता है इन्द्रियां, मन और बुद्धि इस कामना के उद्गम स्थान कहे गए हैं। कामना इन इन्द्रियों, मन और बुद्धि के द्वारा ज्ञान को ढककर देहधारि मनुष्य को मोहित करती है व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 39-40 जैसे अग्नि में इंधन या घी की आहुति देने से अग्नि कभी तृप्त नहीं होती। परन्तु और ज्यादा बढ़ती ही रहती है। ऐसे ही कामना के अनुकूल भोग भोगते रहने से कामना तृप्त नहीं होती परन्तु और ज्यादा बढ़ती रहती है। जो भी वस्तु सामने आती रहती है,कामना अग्नि की तरह उसे खाती रहती है। भोग की कामना कभी पूरी होती ही नहीं जितने भोग पदार्थ ज्यादा मिलते हैं मनुष्य को उतनी कामना ज्यादा बढती है। जैसे हजार रूपये मिलने पर दस हजार की भूख पैदा होती है। तो मनुष्य को यह नहीं दिखता हजार रूपये तो मिले हैं लेकिन भूख दस हजार की हो गई एक हजार मिलने पर उसको नौ हजार का घाटा नजर आता है। ऐसे ही दस हजार मिलने पर भूख एक लाख की हो जाती है। लाख मिलने से भूख करोड़ों की हो जाती है। कामना कभी भी किसी की पूरी नहीं होती क्योंकि यह अग्नि के समान बढ़ती ही रहती है। विवेकियों का वैरी कामना है इस कामना से ही मनुष्य का विवेक (ज्ञान) ढका हुआ है। इस प्रकार मनुष्य की शुद्ध चेतना (आत्मा) उसके काम रूपी शत्रु से ढकी हुई है। कामना कभी तृप्त नहीं होती अग्नि के समान जलती रहती है। इन्द्रियां,मन,बुद्धि इस काम रूप शत्रु के निवास स्थान है। यह कामना इन्द्रियों में,मन में और बुद्धि में रहती है। इसके द्वारा यह काम जीवात्मा के ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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