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मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।
अर्थ तू विवेकपूर्ण बुद्धि के साथ, बिना किसी आसक्ति, अहंकार और दुःख रहित होकर , सम्पूर्ण कर्मों को मेरे लिए समर्पित करके युद्ध रूप कर्म कर। जो व्यक्ति निष्काम भाव से और दोष-दृष्टि से रहित होकर मेरे इस उपदेश का सदा पालन करता है, वह भी कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 30-31 अपनी आत्मा ही अन्तर्यामी परमात्मा है,समयोग में परम युक्त होकर तू अध्यात्म बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों व फल को मुझमें अर्पण कर। कर्म करते हुए मनुष्य को मैं कर रहा हूँ यहाँ कर्त्ता भाव ही संसार में दुखों का कारण है और मैं कर्त्ता भाव ही बार-बार जन्म लेने का कारण है। भगवान कह रहे हैं सम्पूर्ण कर्मों को तू मेरे अर्पण कर। जब मनुष्य में ‘मैं’ भाव ही नहीं बचा तो सब कर्मों का कर्त्ता परमात्मा ही है। अपना सब कुछ परम प्रभु का होता है भगवान कह रहे हैं कि तू सम्पूर्ण कर्मों को मुझको अर्पण करके,आशा,मोह,दुख सब त्याग करके युद्ध कर। मनुष्य सब कर्म परमात्मा को अर्पण करके संसार में कुछ भी पाने की आशा ना रखे और ना ही मोह करे किसी भी वस्तु या व्यक्ति का सुख-दुःख तो सर्दी गर्मी की तरह आने जाने वाले समझे,परमात्मा में दोष दृष्टि ना रखे बल्कि उसको पाने की श्रद्धा रखे आत्मा में श्रद्धा युक्त होकर बार-बार अभ्यास करने से मनुष्य सम्पूर्ण कर्मों व उनके फल से आजाद हो जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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