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श्री भगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।
अर्थ श्री भगवान ने कहा: "हे निष्पाप! इस लोक में मैंने पहले ही दो प्रकार की निष्ठा को बताया है - ज्ञानयोग उनके लिए है जो ध्यान साधना में विश्वास रखते हैं और कर्मयोग से योगियों(कर्मयोगी जो कर्म में विश्वास रखते हैं ) को मोक्ष की प्राप्ति होती है व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 3 हे निष्पाप अर्जुन! भगवान ज्ञान को कहाँ से शुरू करते हैं यह देखने लायक है। निष्पाप अर्जुन यह मनोविज्ञान है आप जिसको जिस शब्द से बोलोगे उसमें भाव तत्काल वैसे ही आ जाते हैं। यह सब खेल मन के भावों का है।जिसने सोच लिया मन में कि गंगा नहाने से पाप धुल जाते हैं। वह व्यक्ति अगर इस बात पर पूर्ण विश्वास कर ले कि गंगा में डुबकी लगाते ही सारे पाप धुल जाएंगे तो वह व्यक्ति जैसे ही डुबकी लगाकर पानी से ऊपर आयेगा वह निष्पाप हो जायेगा। सब खेल मन के भावों का है। अगर गंगा में नहाने से पाप नहीं छुटते यह विचार अगर आपके भीतर है तो आप सालों तक नहाते रहो आप निष्पाप नहीं हो सकते। यह सब खेल मन के विश्वास का है। इसलिए यहाँ श्री कृष्ण ने हे निष्पाप अर्जुन कहा यह बहुत बड़ा मनोविज्ञान है कहने से व्यक्ति उस भाव में आ जाता है, जो शब्द बोला गया है। इसलिए कृष्ण ने अर्जुन को निष्पाप कहा क्योंकि अर्जुन के मन में विचार चल रहे हैं कि कहीं अपनों को मारने का पाप ना लग जाये, तब बोला निष्पाप। इस मनुष्य लोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा (स्थिति) मेरे द्वारा पहले कही गई है। ज्ञान योगियों की निष्ठा ज्ञान योग से अर्थात भगवान को प्राप्त करने के दो ही मार्ग हैं। उसकी स्थिति दो प्रकार से प्राप्त होती है चाहे आप सांख्ययोग (सन्यास) लेकर अपने आप को भक्ति करते हुए पहाड़ों की बर्फ में शरीर को गला दो सर्वव्यापी परम प्रभु में एकीभाव स्थिर रहने का नाम ज्ञान योग है। यानि संसार को स्वप्न समझकर वैराग्य हो जाना व आत्मा में आत्मा को विलीन कर देना ज्ञानयोग है और भगवान ने कहा पहला मार्ग ईश्वर को प्राप्त करने का सन्यास योग है। और दूसरा मार्ग कर्म योग है, कर्म तो सभी करते हैं वह कर्म कर्म है कर्मयोग नहीं। कर्म करते हुए फल और आसक्तियों को त्यागकर भगवद के ज्ञान अनुसार समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम कर्मयोग है। यह विज्ञान है यह तत्वज्ञान है जैसे सन्यासी संसार का मोह छोड़ देता है। वह कर्म ही नहीं करता। जिसका फल मिले, यानि सन्यासी की आसक्तियां शून्य हो गई मन की, मन में जब इच्छा ही नहीं तो मरने के बाद जन्म भी नहीं। शरीर तो आगे तब ही मिलता है जब मन में संसार का मोह हो। जब शरीर का नाश होता है। तब हर बार इच्छा बचती है यानि मन वही आगे जन्म लेता है जब सन्यासी की इच्छाएं नहीं तब मन मरा हुआ माना जाता है। मनुष्य में तीन भाग है। पहला शरीर दूसरा मन और तीसरा आत्मा अब इस बात को अच्छे से समझे कि सन्यासी का जब देह त्याग होता है तब देह (शरीर) यहीं पाँच तत्वों में वापिस मिल जाता है। मन की सभी इच्छाएं शून्य हो गई तो मन भी खत्म। जब शरीर व मन दोनों विलीन हो जाते है तो आत्मा बचता है यह आपका अपना स्वरूप है फिर आत्मा ही परम है जो सर्वत्र दिशाओं में व्याप्त है। इसी को भगवान श्री कृष्ण ने सत चित आनन्द कहा इसी को सन्तों ने निर्वाण, मुक्ति, कल्याण, मोक्ष, परमगति कहा। यह पहला मार्ग सन्यास योग है इनकी निष्ठा (स्थिति) ज्ञानयोग है। दूसरा मार्ग परम को प्राप्त करने का है कर्म योग। कर्मयोग में भी योगी अपनी सारी इच्छाएं त्यागकर अपने स्वभाव से सर्वहित का कार्य करते हैं। इसमें योगी को अपनी कामना कुछ नहीं होती। यह कर्मयोगी कोई भी कर्म करे उसमें अपने आपको कर्त्तापन भाव से अलग रखते हैं। सब कुछ परम प्रभु ही कर रहे हैं। मैं तो निमित मात्र हूँ। इस हिसाब से अपने विचारों में सब अच्छे बुरे फल ईश्वर के चरणों में समर्पित करके अपने अहंकार को शून्य करके, मन की इच्छाओं को विलीन करके भगवत स्वरूप मार्ग पर चलते हैं। जब कर्मयोगी देह त्याग करता है तब सेम सन्यासी की तरह शरीर पाँच तत्व में विलीन हो जाता है और मन में योगी के भी सन्यासी की तरह आसक्तियां शून्य होने से मन विलीन माना जायेगा। अब बचा आत्मा वह परम ही है वही मुक्ति है। इस ज्ञान$विज्ञान को जो तत्व से जान लेते हैं। वह तत्वज्ञानी होते हैं। दोनों मार्ग मुक्ति देने वाले हैं। चाहे सन्यास हो या कर्मयोग मंजिल दोनों की एक है। भगवान कृष्ण ने पहले सन्यास बताया जो अर्जुन के समझ अच्छे से नहीं आया क्योंकि भगवान को पता है कि अर्जुन का स्वभाव सन्यास वाला नहीं तब भगवान ने दूसरा मार्ग बताया कि अगर तू सम होकर फल की इच्छा छोड़कर अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करता हुआ प्रभु के आश्रित होकर युद्ध करेगा तो ही मुक्ति को प्राप्त होगा। इसलिए अर्जुन पूछ रहे हैं भगवान मैं दोनों को समझ नहीं पा रहा हूँ कि कौन-सी स्थिति पर जाऊं। इसलिए निश्चय करके बताएं जो मुझको कल्याण देने वाला हो। दोनों निष्ठा बताने के बाद आगे
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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