तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।
अर्थ परन्तु हे महाबाहो! गुणों और कर्मों के विभाग को तत्त्व से जानने वाला महापुरुष समझता है कि सभी गुण वास्तव में गुणों में ही विचरण कर रहे हैं। उसकी यह धारणा होती है कि गुणों के आपस में व्यवहार संपन्न हो रहे हैं, और वह अपने आप को उनमें आसक्त नहीं करता। प्राकृतिक गुणों से मोहित अज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं। पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि व्यक्तियों को ज्ञानी पुरुष विचलित नहीं करते व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 28-29
गुणविभाग सत्व, रज,तम और कर्मविभाग ब्राहमण, क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र गुण और कर्म के तत्व को जानने वाला योगी को पता होता है कि प्रकृति का गुण ही मनुष्य का स्वभाव है और स्वभाव ही स्वभाव में बरत रहा है। ऐसा समझ कर योगी प्रकृति माया के गुणों में आसक्त नहीं होता।
प्रकृति के गुणों से मोहित हुए मनुष्य, कर्मों के फल में आसक्त रहते हैं। उन फल की इच्छा रखने वाले मन्द बुद्धि अज्ञानियों को,जो सम्पूर्ण जानने वाला ज्ञानी है वह कर्म के प्रति विचलित ना करें। चाहे वह कर्मयोगी हो और चाहे ज्ञानयोगी सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी उनका कर्मांे और सांसारिक पदार्थों के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता।
अज्ञानी मनुष्य स्वर्ग प्राप्ति के लिए शुभ कर्म किया करते हैं ऐसे मनुष्यों को विचलित न करने की भगवान ने आज्ञा दी है। (प्रकृति के गुण व मनुष्य का स्वभाव कैसे कार्य करते हैं और स्वधर्म, स्वभाव क्या है यह पूर्णता से जानने के लिए आप ‘‘परम लीला’’ पुस्तक अवश्य पढ़ें)
- ‘‘आगे के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को आसक्ति से छूटने के लिए क्या करना चाहिए बताते हैं।’’