प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।
अर्थ मानव शरीर धारी जिव झूठे भ्रम के कारण ये मानता है की सब कर्म मैं करता हु यद्यपि सभी कर्म प्रकृति के तीनो गुणों द्वारा निर्धारित होते हैं व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 27
प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा ही सम्पूर्ण कार्य हो रहे हैं लेकिन अहंकार से मोहित मन वाला अज्ञानी मनुष्य मैं कर्त्ता हूँ ऐसा मान लेता है। लेकिन प्रकृति के तीन गुण सत्व,रज,तम के स्वभाव से ही सब क्रिया होती है। जैसे सोना,जागना,बैठना,चलना आदि सब क्रिया है। क्रिया मात्र प्रकृति में होती है। स्वयं तो मनुष्य आत्मा है और अपने स्वरूप में करना और न करना दोनों ही नहीं है। क्योंकि आत्मा इन दोनों से परे है। मनुष्य अज्ञान से ही यह मानता है कि मैं कर्त्ता हूँ,शरीर आप नहीं हो, शरीर तो प्रकृति है जैसे पेड़, पौधे,पशु,पक्षी नदियां है ऐसे ही आपका शरीर है आप तो आत्मा हो,शरीर प्रकृति है।