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सक्तारू कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्।।
अर्थ हे भारतवंशी ! कर्म में आसक्ति वाले अज्ञानी लोग जैसे कार्य करते हैं, उसी तरह आसक्ति रहित तत्वज्ञानी भी लोक संग्रह करने के लिए भी कर्म करें। ध्यान रखें कि तत्वज्ञानी महापुरुष किसी भी आसक्ति या भ्रम को उत्पन्न नहीं करें, वे स्वयं सभी कर्मों को अच्छी तरह से करते हुए अन्य लोगों द्वारा वैसे ही किए जाने को प्रेरित करें व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 25-26 रजोगुण से मोहित होकर आज मानव जाति के लगभग लोग अपनी इच्छा पूर्ति के लिए कर्म कर रहे हैं। जैसे भोगी मनुष्य भोगों में , मोही मनुष्य कुटुम्ब में व लोभी मनुष्य धन के लिए कर्म कर रहे हैं। प्रकृति माया से मोहित होकर अज्ञानी जन जिस प्रकार कर्म करते हैं। तत्वज्ञानी महापुरूष भी लोगों को ऐसे कर्म करते हुए दिखना चाहिए कि यह भी हमारी तरह सुख को प्राप्त करने के लिए ही कर्म कर रहा है। भगवान कह रहे हैं कि कर्मयोगी भी उसी तरह कर्म करे जिस तरह अज्ञानी लोग आसक्ति पूर्ति के लिए कर्म कर रहे हैं। समतायोगी महापुरूष उन कर्म में लगे आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न ना करें। अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न ना करें जैसे कि तुम कर्मों के फल को ना चाहो अगर चाहो तो मुक्ति नहीं मिलेगी। ऐसे अज्ञानी अलग ही ज्ञान पकड़ जाते हैं और वह कर्म करना ही छोड़ जाते हैं। फिर वह परमात्मा का ज्ञान ना होने के कारण आलस्य व निंद्रा में ही पड़े रहते हैं। कर्म करते हुए भीतर में साधक यह भाव रखे कि मेरे को अपने लिए कुछ नहीं करना है। वह लोगों में यह ना कहे कि मैं अपने लिए कुछ नहीं करता हूँ। कर्मों के फल में आसक्त मनुष्य की बुद्धि में यह भ्रम पैदा ना करें अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न ना करें किन्तु स्वयं कर्म करता हुआ उनसे भी वैसे ही कर्म करवाये। योगी भीतर से पूर्ण सन्तुष्ट होता है। संसार में पाने को कुछ बचा ही नहीं,लेकिन बाहर से कर्मयोगी असन्तुष्ट जैसा दिखाई देता है लेकिन असन्तुष्ट होता नहीं है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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