न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।
अर्थ हे पार्थ ! मेरा तीनो लोकों में किसी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है न ही कुछ ऐसा है जो मुझे प्राप्त नहीं हो फिर भी मैं नित्य निर्धारित कर्म करता हु क्योंकि अगर मैं सावधान होकर कर्म नहीं करता हु तो सभी मनुष्य मेरा ही अनुसरण करेंगे और सारी मानव जाती नष्ट भ्रष्ट हो जाएगी और मैं इस संसार को अराजकता देने वाला और विनाश करने वाला हो जाता व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 22-24
आगे भगवान कहते हैं अर्जुन को कि ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्त्तव्य है ना ही कोई इस संसार में प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है। पूरी पृथ्वी पर ऐसी कोई जगह या कोई वस्तु नहीं बनी जो परम प्रभु को प्राप्त न हो। परमात्मा कण-कण में है। इस पूरी पृथ्वी की क्या बात करें चांद,तारे,सूर्य और ब्रह्माण्ड के अनन्त ग्रह ईश्वर के तत्व से ही बने हुए है। सब कुछ प्राप्त है परमात्मा को फिर भी परम प्रभु कर्त्तव्य कर्म में ही लगे रहते है।
परमात्मा और श्रेष्ठ महापुरूष तो इंजन की तरह है,इंजन के चलने से उससे जुड़े डिब्बे भी चलते रहते हैं। श्रेष्ठ पुरूषों को अच्छा आचरण करना चाहिए उनको देखकर ही बाकी लोग चलते हैं। परम ही ब्रह्म है सब कुछ होते हुए भी भगवान कर्म में ही बरतते हैं, भगवान कहते हैं हे पार्थ! यदि मैं सावधान होकर कर्म में ना बरतूं तो बड़ी हानि हो जाये। तत्वज्ञानी आत्म बोध करके जैसे परमात्मा कर्म करते हैं वैसे ही कर्म प्रभु को देखकर कर्मयोगी करते हैं अगर परमात्मा एक पल भी सावधान होकर कर्म ना करें तो योगी भी उनको देखकर उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं। फिर वह भी नहीं करेंगे तो आम जनता भी आलसी हो जाएगी। भगवान कहते हैं अगर मैं कर्म ना करूं तो एक क्षण में ही विनाश हो जाये। पृथ्वी व अनन्त ग्रह आज परमात्मा के सत् पर खड़े है अगर एक पल के लिए यह सत् गुरूत्वाकर्षण छोड़ दे परम तो सब प्राणी नष्ट-हो जाये। भगवान संसार की किसी इच्छा से भी लिप्त नहीं होते। तो भी प्रजा के सुख की खातिर कर्म करते हैं। जैसे सूर्य उदय अस्त, हवा,वर्षा,गर्मी-सर्दी सब कर्म परमात्मा ही करते हैं सब कर्म करने के बाद भी परमात्मा इच्छा शून्य ही रहते हैं। ऐसे ही बिना किसी इच्छा की चाह रखे मनुष्य को कर्म योग के मार्ग पर चलना चाहिए।