कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।
अर्थ क्योंकि राजा जनक जैसे आसक्तिरहित (महात्मा) कर्म से ही सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। तुम्हें भी लोकसंग्रह को ध्यान में रख के लोगों का कल्याण करने के लिए कर्म करते हुए रहना चाहिए व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 20
कर्मयोग बहुत पुरातन योग है इस योग के द्वारा राजा जनक जैसे अनेक महापुरूष परमात्मा को प्राप्त हो चुके हैं। वर्तमान में और भविष्य में भी कोई साधक कर्मयोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिए कि वह मिली हुई प्राकृतिक वस्तुओं व शरीर आदि को कभी भी अपनी और अपने लिए न माने। वास्तव में वह अपनी और अपने लिए है ही नहीं। संसार की है और संसार के लिए ही है। इस सत्य को मानकर संसार से मिली वस्तु संसार सेवा में ही लगा दें। संसार से सम्बन्ध विच्छेद होकर परम प्रभु की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए कर्मयोग परमात्मा प्राप्ति का श्रेष्ठ,सुगम और स्वतंत्र साधन है।
कर्मयोग मुक्ति का सबसे आसान मार्ग है। राजा जनक जैसे अनेक राजाओं ने भी कर्मयोग के द्वारा सत चित आनन्द परम प्रभु को प्राप्त किया। क्योंकि उन्होंने केवल दूसरों की सेवा के लिए उनको सुख पहुंचाने के लिए ही राज किया अपने लिए राज नहीं किया।
कर्मयोग का पालन करने से परम सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है।