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नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयरू।।
अर्थ कर्मयोगी के लिए न कोई कार्य है जिसको वह करके अर्थ प्राप्त करता हो, और न कोई कार्य है जिसके अभाव में वह किसी अन्य वस्तु का आश्रय लेता हो।ऐसे आसक्ति रहित मनुष्य को संसार के किसी भी प्राणी में किञ्चित मात्र भी स्वार्थ और मोह सम्बन्ध नहीं रहता व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 18 कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरूष का इस संसार में  न तो कर्म करने से और न कर्म ना करने से प्रयोजन रहता है। कर्म दो प्रकार से किये जाते हैं। एक इच्छा पूर्ति के लिए और दूसरा इच्छा त्याग के लिए कर्मयोगी कर्म करके फल का त्याग करते हैं। इसलिए कर्मयोग से सिद्ध महापुरूष में कोई भी कामना न रहने के कारण उसका किसी भी कर्त्तव्य से चिह्नमात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। उसके द्वारा निःस्वार्थ भाव से समस्त सृष्टि के हित के लिए कर्त्तव्य कर्म होते हैं। जिसको अपने लिए कुछ चाहिए ही नहीं उस व्यक्ति को संसार के किसी भी मानव से कोई भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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