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अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।
अर्थ सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न हुए हैं (अन्न के दोहन से शरीर वीर्य उत्पन्न करता है और उससे नए जीवन का सृजन होता है )अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा की प्राप्ति यज्ञ से होती है (मानव कल्याण और मानव धरम का पालन करने वाले मनुष्यों के लिए प्रकृति पहले कल्याण करने हेतु उत्सुक रहती है )यज्ञ सत्कर्मों से संपन्न होता है ,और कर्म वेदों से उत्पन्न जान और वेद परम ब्रह्म से उत्पन्न जान और इसीलिए सर्वज्ञ परमात्मा यज्ञ कर्म में सदा निहित है व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 14-15 अपना शरीर मिट्टी से निकले अन्न का ही बना हुआ है। मनुष्य जो अन्न खाता है उस अन्न में से जो प्रोटीन है उस पोषक तत्व को रिजोल्व करके बाकी जो बचता है वह सुबह मिट्टी बनकर मल,मुत्र के द्वारा निकल जाता है। प्राणी अन्न से उत्पन्न होते है। अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। (त्याग को ही यज्ञ कहा है) जैसे दान करने में वस्तु का त्याग यज्ञ है। हवन में आहुति और अन्न घी आदि त्याग ही यज्ञ है। तप करने में अपने सुखों भोगों का त्याग करना यज्ञ है। कर्म योग में अपने स्वार्थ आराम आदि का त्याग ही यज्ञ है। अगर सब प्राणी अपना स्वार्थ छोड़कर एक दूजे की मद्द करे तो उससे देवता खुश होते हैं। जहां सब त्यागी है वहां प्रभु सब के भले की खातिर वर्षा करते हैं। यज्ञ कर्मों से सम्पन्न होता है। निष्काम भाव से कर्म करने को यज्ञ सम्पन्न कहा है। इसलिए सर्वव्यापी परम प्रभु यज्ञ में नित्य स्थिर है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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